बौध्दाचार्य पद्दति | Baudhdacharya Padhdati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११2 [ प्रस्तावना जिसमें एक प्रकार से अझनथ श्रौर हिंसा ही होती है। परन्तु पूजा-यज्ञ के लिए यदि मनमें श्रद्धा है, झव्यात्म-समपण का भाव हतो पयप है। शील--वबोद्ध त्रिशरण के अटल विश्वासी का शील ही मूलघन तथा शील ही मूल संबल है. । शील का अथ सदाचार से है । बोद्ध सदाचार में श्राइबंर को बिल्कुल स्थान नहीं है । भगवान्‌ ने कहा हैः-- न नग्गचरिया न जटा न पंका, नाना सका थंदिल साथयिका वा । रजोब जले उक्कुटिकप्पधा नं, सोघधेन्ति मच्चं॑ अवितिएण कहूँ ॥। घम्मपद १५1१३ जिसमें आकाक्षाएं बनी हुई हैं वह चाहे नंगा रहें, चाहे जटा बढ़ाए,चाहें कीचड़ लपेटे, चाहे उपवास करे, चाह ज़मीन पर सोये, चाहे धूल लपेटे और चाहे उकडू बठे, पर उसकी शुद्धि नहीं होती | असली शुद्धि तो शील पालन से ही होती है. । विसुद्धिमग्ग में कहा हैः; ि न गगा यमुना चापि सरभू वा सरस्पती | निन्‍नगा वाचिरवती मी चापि महानदी ॥। सक्कुणन्ति विषाधेतु त मल इघ पाणिनं । चिसोधयति सत्तानं य॑ वे सीलजले मल ॥। प्राणियों के जिस मल को शील-रूपी जल धो डालता है. उसे. गंगा, यमुना, सरभू, सरस्वती, अचिरवती, सही एवं महानदी नहीं धो पातीं ।




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