घाटियाँ और घुमाव | Ghatiyan Aur Ghumao
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चारियाँ श्रौर घुमाव ७
नारी का श्राँचल मुभ्े मिल जाए तो उसके समस्त दुःखों को मैं पी
जाऊं 1!
तभी एक[ग्रावाज के साथ मैं चौंक पड़ा । देखा तो शीकशोंवाले दर्वाजे
के पास पैरों तक का श्रोवरकोट डाटे कोई आकृति खड़ी थी । उठ कर
मैंने द्वार खोल दिया और मैं उत्सुकता के साथ झागन्तुक की झ्ोर देखता
रहा । उसने नमन श्रौर शिष्टाचार पूर्ण स्वर में कहा “'सुक्ते माफ
कींजियेगा, श्रापको नाहुक तकलीफ दी । पर मैं इसके लिये मजबूर
था । श्राज चार दिन में कौसानी से ऊब गया हूँ । प्रापके पास वाले कमरे
में ठहरा हैं । श्रभी घूम कर आ्राया तो यहाँ बती जली देख चला श्राया ।””
मैंने उनका स्वागत करते हुए कहा “श्राइये.. श्राइये ! भुक्ते बड़ी
खुशी है कि इस डाक बंगले में मैं झ्रकेला नहीं हूँ !””
मैं झ्रादर से उन सज्जन को चारपाई तक ले गया, मैंने ध्यान पूर्वक
उन्हें देखा । वृद्धावस्था के कारण उनकी भंबें तक दवेत पड़ गई थीं
अर सारे मुख को घवल, दूधिया रंग की दाढ़ी ने श्रावेष्ठित किया हुमा
था । उन्होंने बूटों के ऊपर तक ऊनी मोजों में गरम पैंट को बेल्टों से
कसा हुआ था श्ौर ऊपर से एक नीचा चैस्टर वे चढ़ाये हुए थे । उनकी
झायु के सारे श्रनुभव उनकी झाँखों की राह प्रगट होते जान पढ़ते श्ौर
उस श्वेत, दूधिया दाढ़ी से वे एक पत्रित्र हृदय वाले सन्त जेसे भावों
की सुष्टि करते जान पढ़ते । उनके हाथ में पीतल के दस्ते की छड़ी थी,
जो बरृद्धावस्था के इस पतभड़-काल में भ्राज्ञाकारी पुन्नी के समान उनकी
झतुगामिनी थी । मैंने देखा बे सम्पन्न थे, उन्हें सामान्य हष्टि से कोई
दुःख नहीं होना चाहिये था किन्तु इसके बाद भी उनकी भ्ाराँखों से कुछ
ऐसे भाव भकलक रहे थे कि मेरे जैसे व्यवित के श्रागे उनका छिपना
असंभवप्राय' था ।
बैठ कर उन्होंने जेब से पाइप निकाला, उसमें तम्बाकू भरी श्र
काला, नीला धुप्रा ऊपर छत की झोर उड़ाते हुए श्रत्यन्त सौजन्यता
के स्वर में कहा “मैं श्रापकी तारीफ़ जानने के लिये ही इस बेसमय
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