भारतीय साहित्य के निर्माता : शिवपूजन सहाय | Bhartiya Sahitya Ke Nirmata: Shivapoojan Sahaaya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जीवन-यात्रा 9
इस बीच शिवजी को 'माधघुरी”-संपादक दुलारेलाल भार्गव अपने संपादकीय
विभाग में बुलाने की कोशिश करते रहे थे। मतवाला' में मनमुटाव की गंध दुलारेलाल
को पहले ही मिल चुकी थी। शिवजी के संपादन-कौशल एवं सम्मोहक गदय-लेखन
की ख्याति से भी वे परिचित-प्रभावित थे | उनको जब पता चला कि शिवजी “मतवाला'
से टूटकर चले आये हैं और अपने गाँव पर रह रहे हैं, तो उन्होंने अपने मैनेजर
को शिवजी के गाँव भेजा | उग्र को लिखे एक तिथिहीन पत्र में (जो अनुमानतः
1-2 मई, 1924. का होगा), शिवजी ने लिखा : “मैनेजर साहब तार देने के चौथे
ही रोज मेरे घर पहुँच गये। और मेरे घर वालों को बहुत लोभ दिखलाया और दो
सौ रुपये भी दिये | मैं बड़े असमंजस में पड़ गया | मेरे घर वालों की हालत आपको
अच्छी तरह नहीं मालूम। मेरा पारिवारिक जीवन जैसा गया-बीता है, वैसा शायद
ही किसी साहित्यिक का हो। . . . सबने आग्रह और अनुरोध द्वारा विवश किया
और मुझे आना पड़ा ।”
लखनऊ पहुेँचकर शिवजी अमीनाबाद के रॉयल हिन्दू होटल में रहने लगे।
वहीं उनके साथ पं. शांतिप्रिय द्विवेदी, पं. भगवती प्रसाद त्रिपाठी और श्रीमदुभागवत
प्रसाद भी रहते थे। ये लोग भी शिवजी के साथ ही गंगा-पुस्तक-माला कार्यालय
में काम करते थे । कुछ दिन बाद प्रेमचंदजी पी सपरिवार गंगा-पुस्तक-माला कार्यालय
में साहित्यिक सलाहकार की नौकरी पर लखनऊ चले आये । काशी में जो प्रेस उन्होंने
शुरू किया था उसकी हालत बहुत ख़स्ता थी। कर्ज के बोझ को कुछ हल्का करने
के खयाल से ही उन्हें दुलारेलाल की नौकरी कबूल करनी पड़ी थी। लखनऊ आने
से कुछ पहले ही उन्होंने अपना नया उपन्यास “रंगभूमि” दुलारेलाल को छापने के
लिए भेज दिया था, जिसकी अग्रिम ऱायल्टी उन्हें 1800 रुपये मिली थी और जिससे
प्रेस का कर्ज कुछ उतरा था । दुलारेलाल ने 'रंगभूमि' की पांडुलिपि शिवजी को संपादित
करने के लिए दे दी थी और शिवजी ने उसे संपादित करना प्रारंभ कर दिया था।
इस प्रसंग की चर्चा शिवजी ने अपने प्रेमचंद-संबंधी संस्मरण में की है : “मैं 'माधुरी'
के संपादन विभाग में काम करता था । उसी समय उनका 'रंगभूमि' नामक बड़ा उपन्यास
वहाँ छपने के लिए आया था | प्रेमचंदजी ने उतना बड़ा पोधा पहले-पहल नागराक्षर
में लिखा था। . . . दो मोटी जिल्दों में खासा एक बड़ा पोधा, छोटे-छोटे अक्षर,
धनी लिखावट; कहीं काट-छांट नहीं; मानों पूरी पुस्तक एक सौंस में लिखी गई हो।
भार्गवजी की गंगा-पुस्तक-माला की पुस्तकों का संपादन जिन नियमों के अनुसार होता
था, उन नियमों को मैं जान चुका था। . . . 'माधुरी' में भी उन्हीं नियमों का पालन
करना पड़ता था | जब मैं “रंगभूमि' की कॉपी पढ़ने लगा, नियमों का ध्यान छूट गया,
मन रीप्न कर भाषा की बहार लूटने लगा। . . . कुछ हिन्दी शब्दों की लिखावट
में भूल मिलती थी और कुछ के उपयुक्त प्रयोग में भी । वाक्यावली और वर्णन-शैली
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