इंद्रजाल | Indrajal

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Indrajal by डॉ. वी के ठाकुर

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इदज्ञाल श्र “हाँ, हाँ, जाता क्यो नहीं”--ठाकुर ने भी देंस कर कहा । गोली नयी हवेली की श्रोर चला । चट निःशक भीतर चला गया 1 बेला बैठी हुई तन्मपर भाव से बाहर की भीट भरोखे से देख रही थी। जब उसने गोली को समीप श्राते देखा, को वह काँप उठी । कोई दासी वहाँन थी। सम खेल देखने में लगी थी । गोली ने पोर्ली फेक कर बद्दा-- बिला ! जल्द चलो ।” बेला के हृदय में तीत्र श्रनुभूति जाग उठी थी। एक क्षण में उस दीन भिलारी की तरद--जो एफ मुट्ठी मीख के थदले श्रपना समस्त संचित श्राशीर्वाद दे देना चादता है -चहद वरदान देने के लिए प्रस्तुत हो गयी। मन्त्रमुग्ध की तरद वेला ने उस श्राटनी का घूँघट बनाया ! वह घीरे-घीरे उसके पीछे भीड में रा गयी । तालियाँ पि्टी । हँसी का ठद्दाका लगा । वद्दी घूघट, न खुलने वाला बूँबट सायकॉलीन समीर से दिल कर रद्द जाता था । ठाऊुर साहब हैंत रदे थे । गोली दोनों हाथों से सलाम कर रहा था । दो चली थी। मोर के बीच में गाली बेला वो लिये लत फाटक के बाहर पहुँचा, तव एक लड़के ने श्रामर कहा -एक्या ठोक है | तीनों सीधे उस पर जाकर बैठ गये | एक्का वेग से चल पड़ा । झभी ठाऊर साइ्र का दरदार जम रहा था तौर न के खेलों की प्रशसा हो रही थी 1




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