साहित्य - धारा | Sahity - Dhara

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Sahity - Dhara by राजकुमार पाण्डेय - Rajkumar Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ % जन-मन सानस का दफ्ण भी तो है साहित्य । झतएव सहित्य ें सतुशिव्र श्रौर सुन्दर की उद्मावना करने बाज़ा, जीवन श्रौर जगत में भी अनिवार्यतः उपी की प्रतिष्ठा करना साहिगा । अपने स्त्रतत्र संदर्नों की माला गूँथने बाला युगघर्म से भी प्रभावित होना जानता है। जो एक शोर युग का सिर्मात! है दूसरी श्रोर वह युग निर्मित भी है। मानव होने के नाते, अपने समाज की दुदशा देख कर उसे सच्चे सार्ग की झोर ले चलने की मेस्शा देनेवाले कलाकार को यदि हम कोर समाज-सुघारक श्रथवा उपदेशक ही समान लैँ तो भी यह श्रपनी ही भूल होगी । पस्णिमत: हम उस कवि अथवा साधक के जीवन के एक अत्यन्त कोमल पच्च से भी श्रपर्चित बने रहेंगे । मुभे कबीर के इस परम कोमल स्वरूप से, परिचित कर में का श्रेय मूलतः तो स्वर्गीय श्री जयशंकर “प्रसाद” को है । जिनके व्यथित हृदय के मूर्तहाह(कार 'आाँसू” को पढ़ कर झाँसू, के अतिरिक्त श्र सुझे जीवन में कुछ भी श्रच्छा ने दहोगने लगा । श्रपनी इस भावात्मक भूख को शांत करने के लिए, सदेव बिघुर संगीत की ्लोज में भटकता हुश्ा, मुभ्दे महदादेवी व मीरा से परिचित होने का सुश्रवसर मी सिला ह महादेवी व मीरा में मुभे पक अजीब भावात्मक साम्य दिखाई पड़ा । अभिव्यक्ति की कोमलता, विर्ह की विंदरवता श्र प्रीतम के दर्शनों को तीमा हौन छुटपटाहर दोनों में ही एक सी दिखाई दी । “महदादेवी श्राधुनिक मीरा हैं, मेरा विश्वास इृढ़ हो गया । इसके बाद फिर सभें ऐसा लगा कि कोमल भार्वों के इन प्राय; समस्त उदू्ा- वकों में देश व काव्य कौ जबरदस्त भिन्नता होते हुए भी उनमँ एक विशेष बात समान रूप से ही समाधिष्ट है और बह है उनकी श्राइम्बर दीन वाणी । व उनके घायलहुदय की सहदय सम्वेद्य करुणा । सानिषाद प्रतिष्ठाम” एवं 'वियोगी होगा पहिला कवि,” का रहस्यात्सक झवगु ठन खुलते ही, वेदसा की इन श्रलस्त व्यापनी सत्ता को हुदयंगम करते ही भिन्नत्व से श्रमिभस्व व ऑभिन्नत्व में सिन्नत्व का मसर्म सी झपने श्राप समझ में आरा गद्य । और समझा में श्रा गया कि ब्राणी के विभिन्न श्रावरणों, देश' और काल के नाना चिंधि श्रन्तरात्माओं के झन्दर मी क्या सौरा, कया महादेवी, “प्रसाद” शऔर क्या कबीर सर्दों में एक ही प्राण चेतना मुखरित हो रही है ! सीरा की 'पीर', महदेवी की 'घीड़ा” प्रसाद के “ाँसू दादू का “दर्द” श्रीर कच्ीर कौ समंस्पर्शी वेदना में मूलतः कोई अन्तर नहीं । वाणी के नग्न वाद्य श्राचारों को छोड़ कर प्रायः इन सभी भावुक साधकों के अन्तःकरण का निर्माण बहुत कुछ एक ही प्रकार के भाव तत्वों से हुआ है । समष्टि रूप में यदि उन संबों को “विदना” की संज्ञा दे दी जाये तो शधिक उपयुक्त होगा । प्रस्तुत निवन्ध का उद्देश्य भी कबीर की उसी अनन्त ब्यापनी बेदना का विरलेषण है, नो उनकी रचनाश्रों में उनके हृदय के श्रनेक कर्ण कोमल सन्दनों का रूप लेकर यत्र तत्र एवं सर्वत्र हो इल्सगोचर होती है. कवींर हिन्दों के सबसे पहले




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