पनघट | Panaghat
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काव्य-कपना डे
एकाएक उसने भोज-पत्र देखा, ओर रुक गई ओर उसने सक्ोचसे
सिर झुका लिया । उसको खयाल श्ाया, कि मुभसे भूल हो
गई है। उसने विनय-भावसे महाराजकी ओर देखा, ओर कहा,
“पिताजी ! मुक्के पता न था...”
महाराजने उसके इन दाब्दोंको न सुना, न उसे अपनी त्रात पूरी
करनेका अवसर दिया । वे उठकर उसके निकट श्राए, पिल-वात्सल्यका
चौंपता हुआ हाथ उसके सिरपर फेरा, और प्यारके इस बसमें करनेवाले
अमलको जारी रखते हुए बोले, “' बेठी उषा, जरा सूर्यकी तरफ देख।
ह अपनी किरयें समेट कर काली चादरमें मुँह छिपा रहा है । उसकी
किरणें झूलोंके सिरपर हाथ फेर रही हैं, जिस तरह मैं तेरे सिरपर
हाथ फेर रहा हूँ । मे दरबारके कि भी मेरे भाव नहीं समक
सकते, न उनके पास वह अँख है, जो दाब्दोंकी सुन्दरताको देख
सके । मगर मुके पूरा विश्वास है कि मेरी बात तू जरूर समभेगी । तू
मेरी बेठी है । तेरा मन मेरे मनके सँचेमें ढला है । ”'
महाराजने कविता सुनाइ । राजकुमार्राने कविता सुनी, अर उसकी
ब्खोंकी चमक और होठोंकी मुस्कराइटने महाराजकों त्रिश्वास दिला
दिया कि बेटीने बापकी कविताका भाव पूर्ण-रूपसे समझ लिया है |
इसके बाद बाप-बेटी, दोनों शामके ँपिरेगं महलको रवाना हुए,
आर उपषाने बापके पीछे भाग कर उसके साथ मिलनेका प्रयत्न करते
हुए बालेपनकी सादर्गासे कहा “' में भी कं्रिता सीखूगी । ”'
तर महाराज, जिन्होंने इससे पहले अपनी प्यारी बेटीकी छोटीसे
छोटी बातकों भी नामंजूर न किया था, दिलमें सोचते थे, इसे कविता
कौन सिखाएगा ? यह जवान है, तर दुँवारी है और सुन्दरी है। इधर
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