पनघट | Panaghat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काव्य-कपना डे एकाएक उसने भोज-पत्र देखा, ओर रुक गई ओर उसने सक्ोचसे सिर झुका लिया । उसको खयाल श्ाया, कि मुभसे भूल हो गई है। उसने विनय-भावसे महाराजकी ओर देखा, ओर कहा, “पिताजी ! मुक्के पता न था...” महाराजने उसके इन दाब्दोंको न सुना, न उसे अपनी त्रात पूरी करनेका अवसर दिया । वे उठकर उसके निकट श्राए, पिल-वात्सल्यका चौंपता हुआ हाथ उसके सिरपर फेरा, और प्यारके इस बसमें करनेवाले अमलको जारी रखते हुए बोले, “' बेठी उषा, जरा सूर्यकी तरफ देख। ह अपनी किरयें समेट कर काली चादरमें मुँह छिपा रहा है । उसकी किरणें झूलोंके सिरपर हाथ फेर रही हैं, जिस तरह मैं तेरे सिरपर हाथ फेर रहा हूँ । मे दरबारके कि भी मेरे भाव नहीं समक सकते, न उनके पास वह अँख है, जो दाब्दोंकी सुन्दरताको देख सके । मगर मुके पूरा विश्वास है कि मेरी बात तू जरूर समभेगी । तू मेरी बेठी है । तेरा मन मेरे मनके सँचेमें ढला है । ”' महाराजने कविता सुनाइ । राजकुमार्राने कविता सुनी, अर उसकी ब्खोंकी चमक और होठोंकी मुस्कराइटने महाराजकों त्रिश्वास दिला दिया कि बेटीने बापकी कविताका भाव पूर्ण-रूपसे समझ लिया है | इसके बाद बाप-बेटी, दोनों शामके ँपिरेगं महलको रवाना हुए, आर उपषाने बापके पीछे भाग कर उसके साथ मिलनेका प्रयत्न करते हुए बालेपनकी सादर्गासे कहा “' में भी कं्रिता सीखूगी । ”' तर महाराज, जिन्होंने इससे पहले अपनी प्यारी बेटीकी छोटीसे छोटी बातकों भी नामंजूर न किया था, दिलमें सोचते थे, इसे कविता कौन सिखाएगा ? यह जवान है, तर दुँवारी है और सुन्दरी है। इधर




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