रवीन्द्रनाथ के निबन्ध भाग - 1 | Ravindranath Ke Nibandh Bhag - 1

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Ravindranath Ke Nibandh Bhag - 1  by विश्वनाथ नरयनें - Vishvanath Narayanen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निवेदन ग श्र पद्धति से हुभा है ? कया विभिन्न देशों का लय एक् ही रहा है * ये प्रश्न भी किसी समय रवीन्द्रनाथ वे मन में उठे थे । यह कहना न होगा कि भारत की निजस्वता का अनुसन्धान ही इन प्रश्तो के पोछे था । कवि ने इस सिद्धान्त वो माना कि भारतीय सम्यता का प्रधान ग्राथय समाज है भौर योरपीय सम्यता वा झाधय है राष्ट्रनीति । उन्होंने वहा “मनुष्य के लिए सामाजिक महरद का भी सूर्य है, राजनंतित सहहद वा भी । लेक्नि यदि हम सोचें कि योरपीय नमूने पर ही “निशान का निर्माण करना सम्यता का लक्षण है भ्ौर मनुष्यस्व का एक-मात्र उद्य्य है, तो यह हमारी बड़ी भूल होगी ।” इस तरह की उवितया से ऐसा लगता है कि कवि के सतनुमार भारत का पथ झर योरप का पथ एक-दूसरे से विलकुल स्वनन्त्र है । विंसी समय ऐसी ही घारणा वी झ्ोर कवि का भुवाव अवध्य था । परन्तु सन्‌ १९१४ में लिसे गए 'कर्तार इच्छाय कर्म निवन्य से स्पष्ट है कि उन्हें एव चात में जरा भी सदेह नहीं था--जो कुछ भी मानव-जीवन वो श्रेप्ठ सा्थकत्ता प्रदान कर सकता है वहू बमनीय है, ग्रौर उसे प्राप्त करने के लिए सबको यत्न करना होगा । कवि कहते हूँ * “यदि कोई जाति किसी प्रकार की सहानू सम्पदा प्राप्त बरती है तो वह क्सिलिए ? इसीलिए कि वह उस सम्पदा का देश देश म, दिशा दिशा मे, वितरण करे । योरप वी मुख्य सम्पदा है विज्ञान, जनसाधारण का ऐवय-दोघ ात्मन्कतुख्व । इस सम्पदा झौर शक्ति का भारत तक पहुँचाना--यही था भंप्रेजी शासन का महान्‌ दायिव । यह दायित्व मानो विधाता का दिया हुमा राजकीय श्रादेश-पत्र था ।. हमारे समाज मं, हमारी व्यवित-स्वातन्श्य-सम्दन्पी घारणाय्रो मे काफ़ी दौदंल्य है, इस वात को छिपाने का प्रयत्न बवार है। फिर भी हम झ्राम-कतुत्व चाहत हैं । भ्रपेरे बमरे के एवं वोने में यदि एक *नछोटान्सा दिया टिमटिमा रहा हो ता इसका मतलब यह तो नहीं टुम्ा कि दूसरे शिसी कोन थे एड ब्पौर दीप जलान दा हम अधिदपर नहीं है। बत्ती चाहें जहीं की हो, झौर चाहे जितनी क्षीण हो, हमे दीप तो जनाना ही है। 7 भारत का विर-जागूत, चिर-यौवनपूर्ण भगवान्‌ श्राज हमारी श्रात्मा वो आह्वान दे रहा है। वह कह रहा है कि आत्मा अझपरिमिय है, अपराजित है, अमृत-लोक पर उसका अनन्त भ्रघिकार है । नारत की झ्प्टमा आज भ्न्व प्रया झौर प्रभुवव के अपमान से घूल में मुंह छिपा रहो है. युग-युग तर हमारे 'राधि-राशि अपराघ जमा होते रहे हैं, उनके भार से हमारा पौरप दलित हो जया है, विचार-वुद्धि युमूर् हो गई है । सदियों के इस जजान को पूरी शक्ति




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