नागरीप्रचारणी पत्रिका ईयर | Nagriparcharni Patrika Year-55(2007)ac.3532
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भारतंदु का संदितत जीवनदृत्त एवं साहित्य |
देखकर भारतेंदु जी ने उसे 'अप्रामाणिक सिद्ध किया श्ौर छत में वहाँ से उस मृत
को हटवाकर हो छोड़ा । इसपर किसी ने 'तहक़ीक्नात पुरी” लिखा, जिसके उत्तर में
इन्होंने 'तहक्कीक़ात पुरी की तहक़ीक़ात' लिख डाला ।
भारतेंदु जी कद के कुछ लंबे तथा शरीर के एकहरे थे, न अधिक कृश ओर
न मोटे । झाँखें बहुत बड़ी न थी और कुछ धंसी हुई सी थीं । नाक बहुत सुडोल
थी । घुघराली लटें कानों पर लटकती रददती थीं । ऊ चा ललाट भाग्य का थ,तक
था । इनका रंग साँवलापन लिए था श्र शरीर की कुल बनावट सुडौल थी । इनके
शारीरिक तथा मानसिक सॉंदय का इनसे मिलनेवालों पर श्रच्छा प्रभाव पड़ता
था। उस समय लोग इन्हें 'कलियुग के कंपैया' कहा करते थे । साहित्याच/य
पं० अंबिकादत्त व्यास ने 'विहारी-विह्दार' में लिखा है कि 'दूर से लोग इनकी मधुर
कविता सुन आछष्ट होते थे और समीप आा मधुर श्यामसुंदर घु घराले बालवाली
मधुर मूति देखकर बलिह्दारी होते थे श्र बार्तालाप में इनके मघुर भाषण, नम्रता
और शिष्ट व्यवहार से वशंबद हो जाते थे ।'
भारनेंदु जी के शील, सौजन्य तथा उदारता की अनेक कथाएं हैं, पर इन्हें
इसका कभी घमंड नहीं हुआ । ये स्वभावत: कोमलहृदय तथा पर-दुःख-कातर थे ।
कह्दीं भी बाढ़ या झकाल से लोगों को कष्ट हुआ कि इन्होंने स्वयं यथाशक्ति सहायता
की तथा घूम-घूमकर चंदा एकत्र कर भेजवाया। रास्ते चलते किसी को जाड़े में
ठिदरते हुए देखा तो 'अझपना दुशाला ही ओढ़ा दिया । इन्होंने अपने वित्त से बढ़कर
गुणियों, कलाबिदों, विद्वानों तथा सुकबियों का 'आ्रादर-सत्कार किया । दीन-दुखियों
के दुःख दूर किए और कितने ही लोगों की सहायता कर उन्हें व्यवसाय में लगा
दिया । यह सब करते हुए भी इन्हें कभी अपनी दातव्यता, झमीरी, कवित्व-
शक्ति आदि पर 'झहंकार नहीं हुआ । ये स्वभावत: नम्र प्रकृति के थे, पर
दूसरे के अभिमान दिखलाने पर ये उसे सहन नहीं कर सकते थे । इनके एक
कवित्त से इनके स्वभाव, भक्ति आदि पर बहुत अच्छा प्रकाश पढ़ता है |
कहते हैं--
सेवक गुनीजन के चाकर चतुर के हैं
कविन के मीत चित दित गुन गानी के ।
सीघेन सों सीधे महा बांके हम बांकेन सो
'इरीचंद” नगद दमाद श्रभिमानी के |
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