स्वामी के पत्र | Swami Ke Patra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Swami Ke Patra by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अ आदुर्शकी जोर अ 1 में अपने माठा-पितताका कम आदर नददीं करता । उनको सुखी करना, सन्तुप्र रयना मेरे जीपनका सबसे यड़ा कर्चव्य दे इसको में आज भी जानता हूँ और सदा जानता सट्ँगा । विवाह दोनेके चाद एफ वर्ष चीत जाने पर मुफे रुई वार कद ऐसा ज्ञान पड़ा, कि मेरे साथ यहाँ आनेकी तुम्दारी इच्छा है । इसी बीचमें मेरी अवस्था भी कु इसी प्ररारकी दो रददी थी। तुमने साफ- साफ़ कोई बात कही दो स थी, परन्तु हमारे तुम्दारे बीचमे जो बातें होती थीं, उनका स्पष्ट छर्भ यह अवश्य होता था, कि तुम मेरे साथ कानपुर आना चाहती थीं। कुछ दिनों तक इस याततकों अनुभव करके इस वार जय में गया था. तो तुमसे मिलने पर और अनेक प्रकारको बात करने पर में तुमसे पू3 चैठा -ऊुछ दिनोंकि छिए कानपुर चढोगी तुमने हँस कर उत्तर दिया. क्यों फिस लिए ? मेरे पास तुम्दागे बातफा फोई उत्तर न था । मैंने ध्यानपूर्वक तुम्द्वारी ओर देया चुमने अपना मुस अपने मंचलसे छिपा लिया । कुछ देर तक चुप रहनेके बाद जब तुमसे मेंने बातें कीं और बुम्दारे जी विचार सुने, उसको यहाँ आकर मैं रोज ही सोचा करता हूँ । इतनी शिक्षा पाकर ओर स्कूलोॉमें झाजादीके साथ रह कर भी कोई लडकी विचाहके घाद अपने सास-समुरकी इतनी भक्ति फर सकती है, यदद मेरे छिये आश्चर्यंकी बात है । मैंने तो छाब तक यही देखा है कि पढी-छियी लड़कियाँ शादी हो ज्ञाने पर सपने सास और सपुरकी परवाद नहीं करतीं । वे अपने पत्तिकी




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now