1987 के पश्चात संघ राज्य संबंध केआर बदलते स्वरूप का विश्लेषणात्मक अध्ययन | 1987 Ke Pashchat Sangh Rajy Sambandh Ke Badalate Swaroop Ka Vishleshanatmak Adhyayan
श्रेणी : राजनीति / Politics
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
247 MB
कुल पष्ठ :
250
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)व्यवहारवादी शोध
राजविज्ञान के इतिहास में व्यवहारवाद या व्यवहारवाद का बड़ा महत्व हैं । उसे
एक महान क्रान्ति माना गया हैं | इस व्यवहारवादी क्रान्ति ने राजविज्ञान के लक्ष्य,स्वरूप,विषय-क्षेत्र,
पद्धति-विज्ञान आदि सभी को बदल दिया हैं | इसके प्रभाव से परम्परागत राजशास्त्र न केवल
राजनीति-विज्ञान बन गया है, अपितु वह राजनीतिका विज्ञान भी बन रहा हैं |
एक दृष्टि से हम सभी व्यवहारवादी हैं । हम एक दूसरे के व्यवहार को देखते
और सोचते हैं तथा उसी के अनुरूप अपना व्यवहार करते हैं । हमने विशेष व्यवहारों के विशेष
नाम रख लिये हैं, जैसे-शिष्टाचार, लड़ाई, नेतागिरी, मुकदमेबाजी, दल-बदल आदि. [इन सभी
व्यवहारों से हम सुपरिचित हैं | इस दृष्टि से मानव पहले भी व्यवहारवादी था और भविष्य में भी
ऐसा ही बना रहेगा | प्राचीन काल के राजशास्त्री किसी रूप में व्यवहारवादी थे। उन्होंने अपना
राजनीतिक चिन्तन मानव के व्यवहार को दृष्टिगत रखकर विकसित किया हैं। वस्तुतः मनुष्य जन्म
ही व्यवहारवादी होता हैं - प्रेम देखकर आकर्षित होता है और घृणा पूर्ण व्यवहार से दूर भागता
डेविड ईस्टन के अनुसार “मानव के व्यवहार को अपने अध्ययन, अवलोकन व्याख्या,
निष्कषण आदि का आधार मानने की प्रवृत्ति या दृष्टिकोण को व्यवहारवाद प्रवृत्ति कहा
जाता हैं”. व्यवहारवाद शब्द अपने आप में बहुत लायक हैं । बैरलसन के मत में , व्यवहारवादी
का वैज्ञानिक. लक्ष्य “मानव” व्यवहार के विषय में ऐसे सामान्यीकरण प्राप्त करना हैं, जिन्हें निष्पक्ष
और वस्तुपरक ढंग से एकत्रित आनुभाविक प्रमाणों द्वारा पुष्ट किया गया हो |”* उसका लक्ष्य
मानव व्यवहार को, उसी प्रकार से समझना व्याख्या करना तथा उसका पूरा कथन करना हैं, जिस
प्रकार से वैज्ञानिक लोग भौतिक याप्राणिशास्त्रीय तथ्यों एवं घटनाओं के विषय में करते हैं |
व्यवहारवादी विद्वानों ने सर्वप्रथम परम्परागत राजनीतिशास्त्र के दोषों पर प्रहार
किया,उन्होंने उसे दर्शन, कानून व इतिहास के अधीनस्थ बतलाया, तथा. मुक्ति दिलाने के प्रयासों
का दावा किया | दूसरा आरोप यह था कि परम्परागत राजशास्त्र के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु
संस्था हैं। व्यवहारिकतावाद व्यक्ति, व्यक्ति समूह व्यक्ति व्यवहार पर बल देता है । तीसरा गति
या प्रक्रियाओं को महत्व न देते हुये संस्थाओं के ऐतिहासिक कानूनी एवं आदर्श प्रश्न के अध्ययन
में ही परम्परागत विद्वान उसके रहे। चौथा परम्परागत अनुसंधान पद्धति अत्यन्त अस्त व्यस्त, स्वेच्छापूर्ण
आत्म निष्ठ एवं अनुशासनहीन थी, व्यवहारिकवाद उसे वैज्ञानिक बनाने का प्रयास करता हैं । पांचवा
व्यवहारिकवादी इन्द्रियानुभाविक सिद्धांत के दृढ़ समर्थक हैं । साथ ही उत्तरोत्तर ज्ञान के संचय
के पक्ष में हैं जबकि व्यवहारिकवादी क्रांति के पूर्व इसकी सरासर उपेक्षा की गई हैं ।*
डेविड ईस्टन ने ” व्यवहारवाद का वर्तमान अर्थ “ लेख में व्यवहारवाद की आठ
2- डेविड ईस्टन- एण्फेम वर्क फार पोलिटिकल एनलोसिस, प्रोन्टिस हाल, न्यूयार्क, 1960, पृष्ठ-33
3- बैठलसन- वर्नाड दी विहेविटस सायन्स टूडे, केसिक बुक्स, न्यूयार्क 1963, पृष्ठ-3
4- अवस्थी राजकुमार- राजनीतिशास्त्र के नये क्षितिज भाग-1, 1980, पृष्ठ-328-29
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