वीर पठावाली | VEERPATHAVALI
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)'ऋषभदेवे मोर भरत | [श्ण्
सर्वेज्ञ होकर ऋषपभदेवजीने सर्व प्रथम परलोक सम्बन्धी ज्ञानका
उपदेश जगतजनोंको दिया-उन्हें आत्मस्वातंत्यताकी मार्ग सुझानेके
छिये कऋषभ प्रसुने देव-विदेशमें विहार करके धर्माठतकी वर्षा की !
छोगोंके ज्ञान-नेत्र खुल गये । विवेकने उन्हें छोकका चास्तविक रूप
दिखा दिया ! बहुतेरे खरी-पुरुप घरबार छोड़कर साधुधमं पालनेके
छिये मगवानके साथ होगये। अन्य लोगोंने सदस्थ रहकर ही यथा-
झाक्ति धर्म पाठनेका उद्योग किया ! फठतः पहले धर्म-संघकी स्थापना
ोगई और भगवान, ऋषभदेव पहले तीथकरके नामसे प्रस्यात होगये।
उनका बताया हुआ धर्म आज जेन धर्मके नामसे असिद्ध है ।
जिस समय ऋषभदेवजीकों केवलज्ञान हुआ था, ठीक उसी समय
सम्राटू भरतको पुनरत्नकी आाप्ति हुई थी और उनकी आयुषशालामें
चक्र-रतन भी उत्पन्न होगया था । इन तीनों हबे-समाचारोंको . एक
साथ पाकर भरतमहाराज बड़े प्रसन्न हुये और सबसे पहले भगवानकी
चन्दनाके लिये चल पढ़े । उपरान्त वह आये-अनाय॑ लोगोंको सम्य
और धार्मिक वनानेकी नियतसे दिखिजय करनेके लिये सेना सजा-
कर निकल पड़े और छहों खण्ड श्थ्वीको उन्होंने जीत छिया ।
एकमात्र उनके भाई बाहुबछिने ८नका कहना. नहीं माना । इस
कारण सिफ दोनों भाइयोंमिं युद्ध हुआ; जिसके परिणाम स्वरुप
बाहुवलिकों वैराग्य होगया और वह दक्षिण-भारतकी ओर तपस्थां
करनेके. लिये चले गये । भरत अयोध्याको लौट आये। । .
' अंब भरत महाराजको दानपुण्य करनेका भाव हुआं । घस,
उन्हेंने क्षत्रिय, वैद्य और झद्र दणीरेसे घर्मात्मा छोगोंको-छांट छियो
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