प्रेमदीप | Premdeep

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Premdeep by चमन सिंगला - Chaman Singala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उसने बिखरे मोतियों से जगमगाते तारों और नीले आकाश के समुद्र में चांदी की नाव की तरह तैरते हुए चांद को देखा । उसने बादल, इन्द्रधनष, चट्टानें और दूर-दूर तक फैली पवेत श्पखलाओं को देखा था । गाते पक्षियों, गुनगुनाते झरनों भौर धान के खेतों में सरगम छेड़ती पवन को सुना था । सकक्‍्सैना साहिब कुछ दिनों के लिए कहीं बाहिर गए थे । गेंद की तरह फूदकती हुई एक बालिका द्वार पर भाई ॥ पस्तक से नज़र उठा कर रतन कौतृहलवश उसे देखने लगा । “*आपको दीदी ने बलाया है ।”” बालिका रतन से सम्बोधित हुई । **दीदी कौन ?” उसने जिज्ञासा की । “आप दीदी को नहीं जानते हैं” चकित सी होती हुई उस लड़की ने पूछा । “अपनी दीदी का नाम बताओ तब पता चलेगा ।” “न्ताम ! नाम तो मैं भी नहीं जानती ।”” “अरे ! तुम अपनी दीदी का नाम भूल गईं ।”” *व्दीदी को मैं दीदी कह कर ही पुकारती हुँ । नाम कभी नहीं लेती । नही पूछा है । वे यहां कम आती हैं । आती हैँ तो जल्दी चली जाती हैं ।”” शीघ्र चली जाती हैं । कहां ?” “वह किसी बड़े शहर में पढ़ती है । उस भोली बालिका की बातें रतत के लिए पहेली बन गई थीं । असमजस में पड़े हुए उसने पूछा, कहां है तुम्हारी दीदी इस वक्‍त ?”” ““अपने कमरे में । वहां, सामने ।”” रतन को कछ बात समझ आ गई थी । तो बाओगे न ?”' “तुम्हारा कहना तो मानना ही पड़ेगा ।”” “मेरा नहीं दीदी का, उसने जल्दी आने के लिए कहा है ।” फुदकती हुई वह . वहां से भाग विकली । रतन सोच में पड़ गया । उसे क्यों बलाया गया है । हो सकता है गाड़ी द्वारा उमिला ने कहीं जाना हो । एक दो दफा जब उसका उससे सामना हुआ था तो उसके बदलते हुए हाव भाव और चेहरे के रंगों ने रतन के मन में संदेह सा उत्पन्त कर दिया था । काम कोई और भी हो सकता है । उसका फर्ज़ था कि _ बहू जाए । उठकर रतन वस्त्र बदलने लगा | ः “आप ने मुझे बुलाया है ?” रतन ने पूछा । द्वार पर झूमते हुए पर्दे के पास . बह खड़ा था । '. “हां ।* . आज्ञा दीजिए ।”” * अन्दर चले आओ न ।” दा रतन द्वार के अन्दर चला गया । सिकुड़ता-सिमटता सा वह एक भर खड़ा गया । 15.




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