मेरे निबन्ध | Mere Nibandh

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Mere Nibandh by गुलाबराय - Gulabrai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरी दैनिकी का एक. पृष्ठ है. अपने विशेष निबन्धो,के लिए बिना कुछ पढ़े नही लिख सकते । वॉस्तव से मेरे लेखन मे एक तिहाई दूसरे से पढा होता है, एक बटा छह उसके श्राक्षार से स्वय प्रकाशित श्रौर ध्वनित विचार होते है, एक बटा छह सप्रयत्त सोचे हुए विचार रहते है भ्रौर एक तिहाई मलाई के लड्डू की बर्फी बना कर चोरी को छिपाने वाली अभिव्यक्ति की कला रहती है । ) छे से सवा छे तक, कागज कलम स्याही जुटाने में खर्च किया । घर की श्रव्यवस्था ही मेरे घर की व्यवस्था रहती है । जिस दिन मै कुछ नही पढता-लिखता उसी दिन मेरी मेज सजी-सम्हली पडी रहती है। श्राठ बजे तक मध्ये-मध्ये ्राचमनीयम्‌ तथा पुद्धीफल खण्डो के विराम चिद्लो सहित लिखा | ९ बजे तैयार होकर प्रूफ की तलाश मे प्रेस गया, श्रक्षर भगवान्‌ को छुलछिया भर छाछ की बजाय बेलन के बल, जगत की कालिसा मिलाकर उँगलियो पर नाच नचाने वाले कम्पोजीटर देव की अ्नुपस्थिति में कॉपी” मे काट-छॉट की और प्रूफ मे भी घटाया-बढाया । इस प्रकार उनकी भूँफल का सामान कर बाजार गया । वहां पहुँचते ही 'शेखर के श्रन्तिम दिन की भॉति स्मृति के तार कऋकत हो उठे श्र घर के सारे भ्रभावो का ध्यान झा गया। किन्तु बाजार मे कोई स्थान नही है जहाँ कल्पवृक्ष की भॉति सब प्रभावों की एक साथ पूर्ति हो जाय । श्रगर अच्छा साबुन राजामण्डो मे मिलता है तो भ्रच्छा मसाला रावतपाडे मे । किन्तु वहाँ भैस के लिए भ्रुस का श्रभाव था । बाल-बच्चो की दवा के बाद झ्गर किसी वस्तु को सुख्यता मिलती है तो भेस के भुस को, क्योकि उसके बिना काले भ्रक्षरो की सृष्टि नही हो सकती । मेरी काली भेस घवल दुग्ध का ही सुजन नही करती, वरन उसके सहद ही धवल यश के सृजन में भी सहायक होती है । इस गुर के होते हुए भी वह मेरे जीवन की एक बड़ी समस्या हो गई है। मैं हर साल उसके लिए झ्रपने घर के पास के खेत मे ' चरी कर लेता था । इस साल वर्षा के होते हुए भी मेरे यहाँ चरी नहीं हुई--'भाग्य फलति सर्वत्र, न विद्या, न च पौरुष'--मेरे पड़ोसी के इईर्ष्या-जनक लहलहाती खेती है। मेरी भैस को उस खेती से ईर्ष्या नही वरनु सच्चा अनुराग है, वह सच्चे भक्तो की भॉति गूह-बन्धनो को तोडकर अपने प्रेम का आक्रमण कर देती है । जितना वे उसे भगाते है उतनी ही उनकी चरी 'रौधी जाती है श्रौर जितनी उनकी: चरीं रौधी जाती है उससे भ्रधिक उनका दिल दुखता है । मालूम नही, इसकी भ्रेलडूगारशास्त्र मे असगति कहते है या भर कुछ । घाव लक्ष्मणजी 'के हृदय, मे था और पीर रघुवीर के हृदय में, वेरसे ही रौधी चरी जाती थीं भर दुमख मेरे पड़ोसी महोदय के हृदय मे होता था। '. '. '.... ” ' ''' '!




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