पश्चिमी दर्शन | Pashchimi Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुकरात से पहले डे है। दूसरे दो नाम एनैक्सिमंडर (६११-५४७ ई० प०) और एनैदिसिमिनिज (५८८-५२४ ई० पृ) के है। ग्रोफेसर मैकसमूलर ने वहा है कि जब कोई मनुष्य, जो बरपों से दृप्ट जगत्‌ को देखता रहा है, अचानक इस पर दृष्टि डालकर पुकार उठता है--'दुम वया हो *' तो समझो कि दार्शनिक जिज्ञासा उसके मन में पैदा हो गयी है। थेल्स भी दुष्ट जगतु को प्रतिदिन देखता था । अचानक उसके मद में प्रश्न उठा--'यह जगत कया है--कैसे बना है *' उसने प्राइत जगत्‌ में ही इसका समाधान ढूंढ़ना चाहा । बह समुद तट पर रहता था । प्रदेश के वासी खेती-वाड़ी का काम करते थे। ऐसे सोगों के लिए जल का जो महत्त्व है, बहू स्पष्ट ही है। समुद्र में वे अनेक जन्तुओं को पैदा होते देखते थे; भूमि पर साथ पदों को जछ से पैदा होते देखते थे । सम्भवत' थेल्स यहू भी देखता था कि जहाँ अनेक पदार्य जल से उपजते है, वहाँ अनेक पदार्थ जल में पड़कर रामाप्त भी हो जाते है। उसने जल को सारे प्राइत जगतु का आदि और अन्त कहा। जो कुछ विधमान है, वह जल का विकास है, और अन्त में फिर जल में ही विलोन हो जायगा। जल पर जोवन का आधार है, परन्तु जीवित पद्ार्यों में अन्प अंश भी होते है, और जीवित पदार्ों के साथ निष्पाण पदार्थ भी विधमान है। लोहा, सोना आदि धातु जल ये इतने भिन्न हैं कि इन्हें जल के रूपास्तर समझना सम्भव नहीं । धेल्स इय कठिनाई को दूर नहीं कर सका । एनैक्सिमंडर ने अनुभव तरिया कि दुष्ट जगत्‌ के पदार्थों में इतना भेद है कि उसे अस्वीवार नहीं किया जा सबता। जल था कोई अन्य अकेला पदार्थ भूमण्डठ के अमेक भेदों तया इसकी विविपता वा समायान नहीं कर सकता । जल स्वयं भी अपने समावान की माँग करता है । एनेफ्सिमंडर ने थेल्स के समाधान वो अमान्य बहा, परन्तु उसके भौलिक दृष्टिकोण को उसने अपनाया भर प्राइत जगत के स्ोत को प्रइति में हो देखा । अपनी मूल अवस्था में जो निश्वितता अब हम देखते हैं, बह विकास वा फल है। मूल प्रति में किसी प्रवार का भेद नहीं, और इसकी कोई सीमा नहीं । यह अनन्त है। एनैस्सिमैडर ने अनन्त के प्रत्यय को दर्शन में प्रविप्ट किया । उसके पीछे अनन्त और सान्त दा भेद, और उनका आपस वा सम्दस्थ 'एक स्थायी समह्या बन गया है। मूल बयरण एक है; कार्य में यह अनेद, यसंधय रुप भ्रदण वरना है। दार्शनिक परस्न ने एक और बने का दूसरा रुप घारण कर लिया।




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