आचार प्रबन्ध | Aachar Prabandh
श्रेणी : धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
217
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)९० झाचारप्रबन्थ ।
दो छोसक्तो है । सनुष्य को जो कुछ करणीय है उतमें कया होना स-
स्भव है जौर कया असम्भव है ऐसा सोच थिचार कर ही वह फरना
होता है । यही होता है, और यही करना होगा, इस प्रकार को हृढ
सक्ति का प्रयोग बहुत ही थोड़े घिषयों सें हो सक्ता है । किस्त विचार
की प्रखालो ऐसी होने पर भी शिक्षाकाय्य में सम्भघधितब्यता की गयामा
द्वारा सम्दिग्यता का श्राभाख देने से काम नहीं घलता । यदि शिक्षक
सम्भवितब्यता को गणना करने लगता है तो छात्र के छुद्य में शिक्षा-
हृढ़ता घट जाती है एघ सिदट्टान्त या फलकी स्थिरता नहीं होती ।
इसी कारण शादि में सम्भवितव्यता के सक्षम या पंखानुपंख विचार
द्वारा जो अधिकतर सम्भघितव्य कहकर छवधारित होता है वही श्रुव-
सत्य कहकर सिखाया या सीखा जाता है । किसी व्यक्ति को रची
छत पर से भीचे कुदने के लिखे चद्यत देखकर ' तुम मर जाशोगे '
यही कहकर रोका जाता है । दत पर से कूदने में सब समय सब
हो नष्ठीं भर जाते तथापि देशको गठन, शिरने का ढंग, नीचे के सर्थास
की जतदस्था आदि को बघियार कर ” तुम्हारे सरने की सम्भावना
अधिक है ” ऐसा नहीं कहा जाता ।
शास्त्र भी शिक्ादाता हैं । यह भगवान के न्याय का श्रादेश करते
हैं। वे पणमात्र प्रत्यभिज्ञान के फलों को काय्येकररूप से सुव्यक्त करने
फ्षे लिये सुस्यष्ट विधि श्थवा 'निषेध' घाक्यों का प्रयोग करते हैं ।
विधि निपऐध वाक्यों के प्रयोग के समय प्राक्न घौर पुरुषकार भेद से
विभिल् व्यक्तियों के लिये किसी विशेष विषय में सम्भवितव्यता मात्र
प्रदर्शित कर निश्चिन्त नहीं हो सकते ।
शाख्रविधि के इस शिक्षादातृक प्रभुभाव के स्मरण रखने का विशेष
प्रयोजन है । केवल इसी भाव का स्मरण न रहने से श्वाजकल के सड्धरेजी
पढ़े लिखे लोग हो किसी २ स्थल में शास्टोक्ति को असफलसा समक
कर ससके प्रति श्रद्धादीन होठ जाते हैं ऐसा नहीं है, किन्तु अत्यन्त पू्
व्हाल से, अत्यन्त प्रधान २ लोग भी इसो प्रकार श्र्दाहीनता के दोष
को पघाप्त इुए हैं । युद्धदेव ने मबहडुकालपय्यन्त शास्त्रीयविधि के छनु-
यायी तप किया है, उससे वाज्दितिफल न पाकर शारू विद्वेषी हुए हैं ।
सुना गया है कि रामसोहनराय ने भी शनेकानेक पुरश्चरण एवं जप
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