आचार प्रबन्ध | Aachar Prabandh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९० झाचारप्रबन्थ । दो छोसक्तो है । सनुष्य को जो कुछ करणीय है उतमें कया होना स- स्भव है जौर कया असम्भव है ऐसा सोच थिचार कर ही वह फरना होता है । यही होता है, और यही करना होगा, इस प्रकार को हृढ सक्ति का प्रयोग बहुत ही थोड़े घिषयों सें हो सक्ता है । किस्त विचार की प्रखालो ऐसी होने पर भी शिक्षाकाय्य में सम्भघधितब्यता की गयामा द्वारा सम्दिग्यता का श्राभाख देने से काम नहीं घलता । यदि शिक्षक सम्भवितब्यता को गणना करने लगता है तो छात्र के छुद्य में शिक्षा- हृढ़ता घट जाती है एघ सिदट्टान्त या फलकी स्थिरता नहीं होती । इसी कारण शादि में सम्भवितव्यता के सक्षम या पंखानुपंख विचार द्वारा जो अधिकतर सम्भघितव्य कहकर छवधारित होता है वही श्रुव- सत्य कहकर सिखाया या सीखा जाता है । किसी व्यक्ति को रची छत पर से भीचे कुदने के लिखे चद्यत देखकर ' तुम मर जाशोगे ' यही कहकर रोका जाता है । दत पर से कूदने में सब समय सब हो नष्ठीं भर जाते तथापि देशको गठन, शिरने का ढंग, नीचे के सर्थास की जतदस्था आदि को बघियार कर ” तुम्हारे सरने की सम्भावना अधिक है ” ऐसा नहीं कहा जाता । शास्त्र भी शिक्ादाता हैं । यह भगवान के न्याय का श्रादेश करते हैं। वे पणमात्र प्रत्यभिज्ञान के फलों को काय्येकररूप से सुव्यक्त करने फ्षे लिये सुस्यष्ट विधि श्थवा 'निषेध' घाक्यों का प्रयोग करते हैं । विधि निपऐध वाक्यों के प्रयोग के समय प्राक्न घौर पुरुषकार भेद से विभिल् व्यक्तियों के लिये किसी विशेष विषय में सम्भवितव्यता मात्र प्रदर्शित कर निश्चिन्त नहीं हो सकते । शाख्रविधि के इस शिक्षादातृक प्रभुभाव के स्मरण रखने का विशेष प्रयोजन है । केवल इसी भाव का स्मरण न रहने से श्वाजकल के सड्धरेजी पढ़े लिखे लोग हो किसी २ स्थल में शास्टोक्ति को असफलसा समक कर ससके प्रति श्रद्धादीन होठ जाते हैं ऐसा नहीं है, किन्तु अत्यन्त पू् व्हाल से, अत्यन्त प्रधान २ लोग भी इसो प्रकार श्र्दाहीनता के दोष को पघाप्त इुए हैं । युद्धदेव ने मबहडुकालपय्यन्त शास्त्रीयविधि के छनु- यायी तप किया है, उससे वाज्दितिफल न पाकर शारू विद्वेषी हुए हैं । सुना गया है कि रामसोहनराय ने भी शनेकानेक पुरश्चरण एवं जप




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