जन अरण्य | Jan Aranya

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Jan Aranya by manishankar mukharji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इस बरमदे से जोधपुर पाक के पूर्वी जोर पश्चिचमी रास्ते पूरी तरह दिखायी दते हैं । सरकारी दूध की बोलें हाथ में लिये इस रास्ते से जात सोग वाट्कनी की आरामकुर्सी पर विराजमान ईपायन की ओर ध्यान से देखते हैं । शामद इस घर वे मालिक के प्रति उनके मन में ईर्प्या भी होती है। घर छोटा होते हुए भी साफ सुधरा एव सुरुचिपण है हालांकि इसका श्रेय द्रैपायन बनर्जी को नहीं--उनकी पत्नी प्रतिभा भर वढे पुल्ल सुब्रत को है । आई० आई० टी० इजीनियरिंग कालेज के एक प्रोफेसर साहब से सुब्रत मे मकान वा नक्शा बनवाया था | टंपायत बनर्जी ने सोचा था कि दिलायन से भाये विदेशी उपाधि-प्राप्त आकिटेक्ट के नक्शे से मकान जनवाने पर बहुत खब होगा और मामूली सरकारी सौवरी करके वे इतने रुपये कहा से सा पायेंगे । लेविन प्रतिभा ने की एक भी आपत्ति ने सुनी । उसने बिना किसी दुविधा के पति को इस मामले भें चुप कर दिया | त्तब वे लोग टालीगज के सरवारी रिक्विजेशनवास प्लेट में रहते थे। नक्शा देख टपायन बनर्जी बोले थे भोम्बल सुब्रत वा घरेलू नाम ये सब मकान अमरीका लदन के लायक हैं अपने नहीं । मैं तो क्लकतते में जमीन ही नहीं खरीद सकता था । यहू तो सरकारी कोऑपरेटिय की कूपा से पानी के भाव ढाई कटठा जमीन मिल गयी और उसके दाम भी धीरे धीरे प्रत्येक महीने की तनण्वाह से चुवाये । प्रतिभा वोली थी तुम इन सब बातो को लेकर माधापच्ची क्या बरते हो ?मैं और भोग्बल मिलकर जो होगा बर लेंगे। भोम्बल तुम्हारी तरह अनादी तो है नहीं अच्छे नम्बर से आई० आई० टी ० से पास है । कमला उस समय नवदिवाहिता ही थी । वह तभी से थोडा-सा श्वसुर का पक्ष सेती थी । उसने कहा रुपय तो वादुजी को ही देने हागे । फिर सास से बोली वाबूजी ने कितनी ही अदालतें देखी हैं और क्तिन हो लोगो की देखा है उनकी जानकारी बहुत हु । प्रतिभा इस वात पर बहू से सहमत न हो सकी । ऊचे स्वर में बोली होने केवल कोट मे चेठकर सिफ बस्ता भर-भर फंतले लिखे हैं किसी श्रदार का व्यावहारिव ज्ञान इह नहीं । जीवन भर मुझे ही तुम्हारे जन-अरष्प / ९७१९




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