ए डिस्क्रिप्टिव कैटेलॉग ऑफ़ मनुस्क्रिप्टस | A Descriptive Catalogue Of Manuscripts

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A Descriptive Catalogue Of Manuscripts (1981) Ac 5657 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( छि यस्त्र-व लाइने बनाने के लिए जुजवल का प्रयोग किया जाता था । जो लोहे के चिमटे के झाकार की होती थी । श्ाजकल के होल्डर की नीब इसीं का विकसित रूप प्रतीत होती है । कलभों के चिस जाने पर उसे चाकू से छील कर पतला कर लिया जाता था, तथा बीच में से एक खड़ा चीरा कर दिया जाता था । जिससे भावश्यकतानुसार स्याही नीचे उत्तरतीं रहती थी । लेखनियों के शुभाथुभ, कई प्रकार के गुरा-दोषों को बताने वाले भ्रनेक श्लोक पाएं जति हैं । जिसमें उनकी सम्बाई रंग, गांठ झादि से ज्ञाह्हणादि वां, भायु, धन, सन्तान हानि, बुद्धि भादि के फलाफल लिखे हैं । उनकी परीक्षा पद्धति ताइपत्रीय युग की पुस्तकों से चली श्रा रही है । रत्न परीक्षा में रत्नों के श्वेत, पीत, लाल श्ौर काले रग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भर शुद्र की भांति लेखनी के भी वर्ण समझना चाहिए । इसका किस प्रकार उपयोग करना, इसका पुराना विधान तत्कालीन विश्वास व प्रधाश्मों पर प्रकाश डालता है ।* प्रकार-- चित्रपट, यन्त्र धादि में गोल श्राकृतियाँ करने के लिए एक लोहे का प्रकार होता था । यह प्रकार जिस प्रकार की छोटी-मोटी गोल झाकृति बनानी हो उस प्रमाण में छोटा-बड़ा बनाया जाता था । राज भी महू मारवाड़ वगेरह में बनाया जाता है । शाजकल इसके स्थान में कम्पास भी काम में लाया जाता है । झोलिया, उसकी बनावट श्र उत्पसि--प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों को एकधार सीधी लाइन में लिखे हुए देखने से मन में यह प्रश्न उठता है, कि यह लेख सीधी पंक्ति में किस प्रकार लिखा गया होगा ? इस शका का उत्तर यह श्रोलिया देती है । भ्रोलिया को मारवाड़ी में लहीश्रावो फाटीऊ के नाम से जानते हैं । लेकिन इसका वास्तविक उत्पत्ति या प्रर्थ क्या है ? यह सम में नहीं आता है । इसका प्राचीन नाम श्रोलियु मिलता है । भ्रोलियु' शब्द संस्क्रत झालि 1. ब्राह्मणी श्वेतवर्णा च, रक्तवर्णा च क्षत्रिणी । बेश्यवी पीतवर्णा च, श्रसुरीश्यामलेखिनी ॥1 १11 श्वेते सुख विजानीयात्‌, रक्‍ते दरिद्रता भवेत्‌ । पीते च॒ पुष्कला,लक्ष्मी: ,श्रसुरी क्षयका रिस्सी ।1२॥१ चिताग्रे. हरते.. पुत्रमधोमुखी . हरते. धनम्‌ । वामे थ हरते बिद्यां, दक्षिशालेखिनी लिवेत्‌ ॥२॥। भ्रम्रग्न्यि: हरेदायुमं ध्यप्रन्थिहूं रेडनम्‌ । इंप्ठप्रन्थिहरेतू, सब, निरन्धिलेंखिनी लिखेतू ॥४॥। नर्वागुलमिता श्रेष्ठा, श्रष्टी वा. यदि बाइ्धिका । लेखिनी लेखयेम्निस्यं, धनधान्यसमागमः ॥४॥ अष्टॉयुलप्रमासोन, लेखिनी सुचदायिनी । हीनाय हीनेकमं स्यादधिकस्याधिक फलम्‌ ॥१॥। ध्राधप्रस्थिर्द रेदायुमं घ्यग्रस्थिहरेडनम्‌ । ध्रस्त्यप्रस्यिहूरेतु सौश्य॑, निम्न न्यिलेंखिनी शुभा 11१0




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