पाण्डव - वनवास | Pandaw - Vanawas

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Pandaw - Vanawas by पंडित पारसनाथ त्रिपाठी - Pandit Parsnath tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला परिच्छेद । ११ लजलथ्नभथलनप्पपि . पलटनय अल उनधलथाथणथ जलन हो जान सकते हैं। जएसे एक विषयमें बहुत देर तक चित्त निवेशित करनेको शक्ति दोतो है; प्रतिक्षिण उत्साइ-शत्ति उद्दो पित होती रहतो है; जिगीषातत्ति बलवती हो जाती है; कौतूदलकों क्रमश: हद होती है; पासा फ्रेंकनेके पहले हर्ष, दुग्ख, कोप, लोभ प्रति नाना भावों का श्राविर्भाव एक साध होता है; गोटोके चलानेस. विवेक-शह्ति बढ़ती है; दूसरे कौ चतुरता का... सहसा ज्ञान होता है; खबर प्रतारित होना न पढ़े, इसके लिये सतक रहना पढ़ता है; खाजुष्टित कर्मी उपदेशिनो उत्पन्मति उपस्थित होती है; क्रौड़ा-नैपुर्थ प्रका- शित होता है ; अन्त:करण प्रसन्नताके सारे नाचने लगता, है; अपना दाव पढ़ने पर जेसा आनन्द होता है, वैसा ानन्द एक साम्त्रान्‍्य पाने पर भी नहीं होता। है अन्ष-विशारद ! इस सभामें बदुतिरे श्रच-दशक सदह्दात्माओींका समागम इआआ है, सभी कौतृददलाक्ान्त डोकर तुम्हारे आनेके फलकों प्रतोक्षा कर रहे हैं, अव विलस्व करना उचित नद्दों है; भ्राश्नो, दयूत-क्रौड़ा आरख् को जाय !” राजा युधिष्टिरने शकुनि को प्रसिद्द कपटो खिलाड़ो जान- कर, उसको बातींमें . उपेक्षा दिखाते इए. कहा, राजन! यद्यपि यत श्रामोदकर है, किन्तु कूट क्रोड़ा . आमोद का कारण दोकर कलइका कारण दो जाते है.। , कपट की क्रौड़ा चात्रधरस्मनुयायिनो या राजनोति-अज्ुगामिनो नहीं है; चाहे जहाँ कोई स्थान क्यों न हो,पर कापव्य-व्यवहार प्रशंस * नम




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