बना | Bano

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Bano by डॉ० कृष्ण मोहन सक्सेना - Dr. Krishn Mohan Saksena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इसमें आस्ताई हिन्दी और अन्तरा फारसी मे है । ठीक अमीर खुसरो की लेखनी के समान इसी प्रकार ठुमरी दादरा और ख्याल आदि में उर्दू हिन्दी ब्रजभाषा और अवधी को इस प्रकार मिश्चित किया है कि बस देखते ही बनता है । अमीर खुसरो की वफादारी अपनी चरम सीमा पर थी । दिल्‍ली-दरबार जलालउद्दीन तुगलक के प्रति वफादार रहे और 1286 में मुलतान की जग मे वे अपने अभिन्न मित्र और राजा मुलतान सुल्तान मोहम्मद कान के साथ थे । वह उस जग में मारा गया । अमीर खूसरों पर उसकी मृत्यु ने कठोर आघात किया और उन्होंने इस शोक में एक लम्बा मरसिया लिखा । हजरत निजामउद्दोन औलिया के प्रति वे इतने वफादार थे कि जब दिल्‍ली लौटे और उन्हे पता चला कि हजरत ने यह दुनिया छोड दी तो गहरी चोट लगी उनके मन पर । वे हजरत निजामउद्दीन औलिया की मजार पर पहुंचे । केवल एक दोहा पढा और वहीं सर रखकर प्राण त्याग दिये । वह अन्तिम दोहा अमीर खुसरो की वफादारी की एक मिसाल है गोरो सोबे सेज पर मुख पर डारे केस । चल खुसरो घर आपने रन भई चहुदेस ॥ वाजिदअली शाह की नसो मे भी वही खून था वहीं चरित्र था । अग्रेजो के साथ हर सच्धि के प्रति वे वफादार रहे यह बात दूसरी है कि अग्रेजो ने हमेशा बेई- मानी की । वाजिदअली शाहू जनता के प्रति भी विश्वासी थे । अपनी सल्तनत छिन जाने के बाद भी जनता को खून-खराबे से वचाने के लिये वह अग्रेजो से नहीं लडे । वह स्वय लिखते है न की जंग पर बबजूहाते चन्द बयां मै करू उनको ऐ अर्जुसन्द अगर जंग करता तो दस साल तक सगर आख़िरश थी शिकस्तो हृतक ॥। यदि जग होती तो. हजारो मर जाते । सैकडो अपाहिज हो जाते सैकडो घर लुट जाते अवध वर्बाद हो जाता और नतीजा कुछ न होता । अमीर खुसरो मुसलमान अवश्य थे पर अन्धविश्वासी नहीं थे । उनका पहला धरम




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