राजनीतिक विचारों का इतिहास भाग - 3 | Rajneetik Vicharon Ka Itihas Bhag - 3

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Rajneetik Vicharon Ka Itihas Bhag - 3  by ज्योतिप्रसाद सूद - Jyoti Prasad Sood

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९वीं शताब्दी के राजनीतिक विचार की पृष्ठभूमि प्र कर दिया। विकास के सिद्धान्त को एक ऐसी कुर्जी समभझक्ा गया जिससे ज्ञान के गुप्त खजाने के कपाट खोले जा सकते थे; जीवशास्त्र, ज्योतिपशास्त्र, भु-गभ कास्त्र, समाज- रचना शास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र तथा श्राचार छास्त्र सभी पर इसका प्रभाव पढ़ा; विकास की भाषा में सोचना उस युग का एक फैशन हो गया। इसका परिणाम यह हुसछा कि धर्म तथा मानवीय व्यापार विषयक मतुप्य की परम्परागत धारणायें जिन सरल मान्य- ताशों पर श्राधारित थीं उनकी सत्यत्ता में सन्देह होने लगा श्ौर उनका परीक्षण किया जानें लगा । वैज्ञानिक ज्ञान की प्रगति से मानव की धार्मिक झास्था का श्राघार हिल उठा। शिक्षा के प्रसार के फलस्वरूप सर्वसाधारण के मन पर से परम्परा तथा धर्म का « प्रधिकार जाता रहा, उन्होंने नवीन देववाणियों को सुनना सीखा । इस सब का परिणाम यह हुप्रा कि १६वीं शताब्दी के श्रन्त में सवेसाधारण का श्रक्षर ज्ञान एक सामान्य ज्ञान यद्यपि श्रपने पूर्वजों की श्रमेक्षा कहीं अधिक हो गया, किन्तु उनका निर्णय उतना निशिचित तथा उनका श्रात्म-विर्वास उतना गप्रडिग नहीं रहा । राजनीतिक विचार के ऊपर धघ्रभाव-- फ्रांसीसी क्रांति, ्ौौद्योगिक क्रांति तथा यन्त्र कला की प्रगति से जो परिवर्तन श्राय, वे १६वीं शताब्दी के राजन॑ंतिक विचार में पूर्ण रूप रो प्रतिबिम्बित हुये। जिस प्रकार कि १६वीं से. १८वीं दाताब्दी तक के सासव- खिंतन पर संविदा सिद्धान्त तथा देविक जन्म सिद्धास्त ाच्छादित रहे, श्रथवा मध्य काल में सानव बुद्धि विदव-व्यापक समाज की धारणा से पराभूत रही, उसी प्रकार के किसी एक ही विचार का प्राघान्य १४वीं शताब्दी में असम्भव था। इस काल का राजन तिक विचार बहुत से असम्बद्ध विचारों का एक जमघट सा बन गया । एक झ्ोर तो हम उप+ योगिताबादी सिद्धान्त का प्रतिपादन होते हु देखते हैं जो कि समाज को व्यक्ति के सुख रूपी साध्य वा एक साधन मात्र समभता हैं, दूसरी भ्रोर हम श्रादर्शवादियों को पाते हैं जिनके विचार का केस्द्र बिन्दु सामाजिक सम्पूर्ण है झौर जिसके साथ वे व्यक्ति का सामं- जस्य करना चाहते हैं। इसके श्रतिरिक्त, यदि हमें एक श्रोर कुछ ऐसे विचारक मिलते हूँ जो कि राज्य तथा उसकी समस्याश्रों का अध्ययन करने के लिये जीव-शास्त्रीय दृष्टिकोण को झ्पनाते हैं, तो दूसरी शोर हमें कतिपय ऐसे' दाशंनिक मिलते हैं जो कि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को अधिक उपयुक्त समभते हैं। इस प्रसंग में हमें मेन (18106) तथा सेचिग्नी (58पंट्वाए) सरीखे विचारकों को भी नहीं भूलना चाहिये जिनकी श्ष्ययन पद्धति ऐति- हासिक थी। उस शताब्दी के उत्तराद्ध में कार्ल मार्क्स तथा एंगिल्स के सिद्धान्तों ने भी राजनीतिक कल्प-विकल्प पर बड़ा प्रभाव डाला, श्र बह श्राज भी कायम है। पूंजीवाद, स्वतस्त्र व्यापार तथा प्रतिस्पर्धा श्रौर सँसे फेयर के सिद्धान्तों पर, लिनके ऊपर गत युग का सामाजिक ढांचा श्राधारित था, मास तथा एंगिल्स ने कड़ा प्रहार किया, श्र उनसे प्रेरणा प्राप्त करने वाले विचारकों मे सामाजिक पुनरंचना के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रति- पादन किया। इस प्रकार हम १४वीं शताब्दी के राजनीतिक विचार मेंएएक बड़ी झौरूल




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