आप्तमीमांसा भाषा वचनिका | Aaptamimansa Bhasha Vachanika

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Aaptamimansa Bhasha Vachanika by संदीप सरल - Sandip Saral

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उसका कथन न हो सकने का दोष दिखाया गया है। ३३ से ३६ तक चार कारिकाओं द्वारा स्याद्वाद नय से एक और अनेक विरोधी धर्मों की अपेक्षा से सप्तभन्ञजी की योजना कर अनेकान्त की सिद्धि की गयी है। इस प्रकार द्वितीय परिच्छेद में एक अनेक आदि विरोधी सिद्धान्तों की समीक्षा कर वस्तु को सप्तभन्ञात्मक सिद्ध किया गया है। तृतीय परिच्छेद - तृतीय परिच्छेद में ३७ से ६० तक २४ कारिकाएं हैं। ३७ से ४० तक चार कारिकाओं द्वारा सांख्य के सर्वथा नित्यवाद की आलोचना की गयी है। कहा गया है कि पुरूष और प्रधान को एकान्त रूप से नित्य मानने पर उनमें किसी भी विकार की संभावना नहीं होगी । क्योंकि उत्पत्ति से पूर्व न किसी को कारक कहा जा सकता है और न ज्ञप्ति से पूर्व किसीको प्रमाण कहा जा सकता है।एक रूप होनके काराण एकान्तरूपसे नित्य प्रधान और पुरूष से किसी की उत्पत्ति और ज्ञप्ति आदि कोई क्रिया संभव नहीं है, अत: उसे न कारक कहा जा सकता है न प्रमाण | इन्द्रियों से घटादि अर्थ की अभिव्यक्ति के समान प्रधान रूप कारक या प्रमाण से महदादि की अभिय्यक्त होती है यह भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि सर्वथा नित्य प्रधान में अभिव्यक्ति के लिये भी क्रिया नहीं हो सकती । अत: महदादि को प्रधान से अभिव्यक्ति भी नहीं कहा जा सकता। सर्वथा नित्य पक्ष में पुरूष की तरह सत्‌ कार्य की न तो उत्पत्ति हो सकती है न अभिव्यक्ति,/परिणमन के अभाव में पुण्य-पाप प्रेत्यभाव तथा बन्ध मोक्ष आदि भी नहीं हो सकते । ४१ से ५४ तक १४ कारिकाओं द्वारा सर्वथा अनित्यपक्ष में दोष दिखाया गया है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानने पर पूर्वापर क्षणों में अन्वय न होने के कारण प्रत्यभिज्ञा, स्मरण, अनुभव आदि नहीं होने के कारण प्रेत्यमाव आदि भी नहीं बन सकते। सर्वथा क्षणिकवाद में कार्यकारण भाव हिंस्यहिंसक भाव, गुरू शिष्य भाव, पति-पत्नी भाव, बद्धमुक्त भाव तथा स्कंघ सन्ततियाँ भी नहीं बन सकती हैं । ५५ वीं कारिका में सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य के उभयैकान्त में विरोध तथा सर्वथा अवाच्यता के एकान्त में अवाच्य शब्द के द्वारा उसका आप्तमीमांसा 16 _) आचार्य समन्तभद्र




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