तुलसी और तुंचन (तुलनात्मक समीक्षा ) | Tulsi Aur Tunchan (Tulnatmak Samiksha)

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Tulsi Aur Tunchan (Tulnatmak Samiksha) by रामचंद्र देव - Ramchandra Dev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ही श्राई है । काल के प्रनवरत प्रवाह मे कभी-कभी ऐसे कुछ तत्व भारतीय चिंतन मे श्रवब्य सम्मिलित हुए हैं जो लोगों को कर्ममाग से पराड मुख भी कर सके । बौद्ध सिद्धान्तो से प्रभावित शंकराचायें के मायावाद ने श्रपने “जगन्मिथ्या' वाले सिद्धान्त से जाति को कम्मक्षेत्र से विमुख किया जिसकी पकड़ से वह श्रभी तक पूर्णतया विमुक्त नही हो पाई है। यही प्रवाह तथागत के दुःखगद का भी रहा । दुनिया मे यह एक श्रविचल नियम ही है कि प्रत्येक क्रिया की एक प्रत्तिक्रिया हुमा करती है । यह स्थिति केवल याहच्छिक नहीं है। क्रिया और प्रतिक्रिया में कारण-कार्य सम्बन्ध ही वर्तमान है । इसी से सामाजिक - भ्रावश्य- कताश्रों की पूर्ति हुम्रा करती है । उदाहरणाथ, हिसायुक्त वैदिक कमेंकाण्ड के विरुद्ध भगवान बुद्ध का श्रहिसावाद, शंकराचार्य के श्र तवाद की प्रतिक्रिया मे ढत, विशिष्टाद त श्रौर सगुण भक्तिघारा का प्रवाह सव इसी प्रक्रिया के ययोत्क हैं । तुलसीदास जी की सामाजिक, राजनैतिक एवं घार्मिक परिस्थितियों के श्रष्ययन से यह नितरा व्यक्त हो जाता है कि उनके जीवन श्रौर साहित्य- सपर्या ने किस महान सामाजिक शझाव्यकता की पति को है। तत्कालीन भारतीय समाज की--विशेष कर हिन्दू जनता को--उनकी श्रमृतनिष्यदिनी वाणी ने किस प्रकार संभाला, यह विशेष रूप से कहने की श्रावश्यकता नहीं है । ठीक उसी प्रकार केरल की जनता को तुंचन ने श्रपनी भवगदुरभक्ति से, समाद्र वाणी से किस प्रकार उद्बुद्ध किया, इसकी चर्चा हम धागे करेंगे ही। अ्रगर स्यूल से सुक्ष्म भ्रघिक महत्वपूर्ण श्रौर श्रघिक बाक्तिशाली है, वाह्यक्तिया से बुद्धि प्रौर भावना के व्यापारो की व्यापकता श्रघिक है तो संदेह नहीं कि कवि श्रौर कलाकार, दार्शनिक श्रौर विचारक मनुष्य के विचार श्रौर तदारा कर्म केक्षत्र मे कहीं भविक स्थायी श्रौर दूरव्यापक क्रान्ति उत्पनन कर सकते हैं । चाल्टेयर श्रौर रूसी, मार्क्स तथा गांधी ये सब इस सिद्धान्त के उज्ज्वल उदाहरण है । नीशे ने जर्मन जनता के नित्य जीवन तक़ को कितना श्रभावित किया था, यह सर्वविदित ही है । दार्कषनिकों का निष्कर्ष झवोध साधघारर जनता को कभी-कभी पथश्रष्ट भी कर देता है । पर कवियों के सम्बन्च में ऐस नहीं कहा जा सकता | कवि मानव मन के सुदष्म तथा मृदुल-मावो को उद्वुद करके उन्ही के परिष्कार द्वारा उसे विव्व मानवता की श्रोर श्रग्रसर करत जम




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