मास्टर साहब | Master Sahab

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Master Sahab by श्रीयुत ऋषभ चरण - Shriyut Rishabhcharan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मास्टर साहब [ था ल्लिध “कुछ नहीं, पूरा !” सुरारी ने कहदा--में साधित्री को देवी समसाता हूँ । याँ स्त्री-हृद्य वी मानसिक दुबेल- ताझँ का झभाव देवियों में भी नहीं दोता-जैसा कि पुराण कहते हैं--, पर चोरी ! राम ! राम ! ऐसी बात ं पर तुमने विश्वास-ही केसे कर लिया १” ई हेतराम ने सन्देद की हिलती हुई डाल पर बेठ कर कहा--“परन्तु रसोइया-मददाराज श्रपने झयोध्या हो झाने वी दुद्दाई देकर जनेऊ छू रहे थे-शापनी बात की पुष्टि मे ।” हि सुरारी ने कहा-“इन रसोइया महाराज और नौकरों को दाल नहीं गलती है न ! इसी लिये ये लोग तुझ-मुस से झपने दिल का गुवार निकाला करते हैं । भला सावित्री बेचारी पचास बष की हुई, वे पिता के घन का क्या बनायेंगी ?” हेतराम बोला--“खुनता हूँ, झपने भतीजे रतन को यह बहुत प्यार करती है; पिता के घन से खूब उसी का घर भरती है । ” ' सुरारी हँसा । कहने लगएँ-“वाह भाई, वाह ! तुम भी यार, यो-ही रहे। स्नेह-मय पिता को छोड़ कर वे भत्ता




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