श्रावक प्रतिक्रमण | Shravak Pratikraman
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
242
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(६)
ये दृष्टिकोण ठीक नहीं। चाहे ब्रत स्वीकार किये हों चाहे न
किये हों, अतिक्रमण करना तो अच्छा ही है। ब्रत में कोई
स्खलना हो गई दो तो उसकी शुद्धि दो जाती है और जो ऐसे दी
करता है, उससे भी कम से कम आत्म निरीक्षण का मौका तो
मिलता है। मन भर वाणी की शुद्ध मदृत्ति होती है । स्वाध्याय
और कायोत्सग दोता है। त्याग के प्रति रुचि पैदा होती है।
अतणएव प्राचीन भाचार्यो' ने छिखा है--
प्रतिक्रमणप्येव, सतिदोपे श्रमादत ।
तृतीयौपघकल्पत्वादु, द्विसध्यमथवाझ्सति ॥।
अर्थात:--भोपधि तीन तरह की होती है--एक औषधि
रोग मे छी गई छाभ पहुंचाती है और रोग के बिना दवानि।
दूसरी श्रेणी की दवा रोग में छाभ करती है और रोग के बिना न
तो छाम करती है और न द्वानि। तोसरी श्रणी की भौषधि बह
है, जो रोग में फायदा करती दै और उसके बिना भी शरीर को
स्वस्थ; पुष्ट और तेजस्वी बनाती है। प्रतिक्रमण ठोक इस तीसरी
श्रेणी की दवा के समान है । यदि अतिचार छगने पर किया जाय
तो इससे भतिचार की शुद्धि हो जाती हैं, और यदि अतिचार के
बिना किया जाय हो भी उससे घुद्ध प्रडत्ति होती है; आत्म-उत्यान
होता दै । इसछिए प्रतिक्रमण प्रत्येक स्थिति मे छाभरकारक है और
ब्रत सें हुए दविद्रों को रोघने का उददश्य तो मुख्य है दी। उत्तरा-
ध्ययन के २८ दें अध्ययन में स्पष्ट कहा गया है--
पृडिक्कमणेण वयछिद्धाइ पिहेइ।”
ब्रती पुरुष प्रतिक्रमण के द्वारा श्रत के द्विद्रों को रॉघते है अर्थात्
त्याग में जो कोई श्रुटि ोती है, वदद आठोचना से पुधारी ला
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