कल्याण | kalyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
450
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पूज्यपाद श्रीउड़ियाखामीजीके उपदेश
( प्रेषक--भक्त भीरामशरणदासजी )
प्रश-महाराजजी ! उपासनामें कैसे रुचि हो !
उचर-उपासना करनेसे ही उपासनामें रुचि हो
सकती है । जिसका जो इष्ट हो, उसे निरन्तर उसी-
का चिन्तन करते रहना चाहिये । दम जिसकी निरन्तर
भावना करेंगे, बह बस्तु हमें अवश्य प्राप्त हो जायगी ।
उपासक तो एक नयी सृष्टि पैदा कर लेता है । इस
प्राकृत संसारसे तो उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता ।
म्र०-भगवन् ! ऐसी दिव्प दृष्टि कैसे प्राप्त हो !
उ०-वह तो भगवद्भजनसे ही प्राप्त हो सकती है ।
भजनसे ऐसी कौन चीज है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ।
इससे अष्ट सिद्धि और निर्विकल्प समाधि भी प्राप्त हो
सकती है । ऐसे महापुरुषोंको ही दिव्य बृन्दावनके
दर्शन होते हैं, साधारण बुद्धिवले उसे कैसे देख
सकते हैं । वास्ततरमें भक्त और ज्ञानी इस सृष्टिमें नहीं
रहते | उनकी तो सृष्टि ही अलग होती है । इस
सृष्टिमें तो वे आग लगाकर आते हैं |
प्र०-महाराजजी | उनकी सृष्टि कैसी होती है !
उ०-जिसमें निरन्तर रास हो रहा है ।
प्र०-वह कैसे दीखे !
उ०-जो इस दुनियासे अंघे हैं, उन्हें ही वह दिव्य
रास दिखायी देता है ।
प्र०-इस दुनियाके त्यागका क्या खरूप है ?
उ०-इस संसारके त्यागके दो रूप हैं--देहत्याग और
गेहृत्याग | देहत्याग तो यह है कि टैँगोटीको भी फेंक दिया
जाय, तथा गेहत्याग यह है कि पश्चकोषसे अछग हो जाय ।
है पी श्र श्र शरद
१. यदि भगवानका चिन्तन करते हुए हमें संसार-
की चीजें अच्छी लगती हैं तो समझना चाहिये कि
हम अभी अपने छश्यसे कोसों दूर हैं । जब संसारकी
बढ़िया-से-बढ़िया चीजको देखकर भी हमें प्रणा हो
तभी समझना चाहिये कि कुछ भगवदनुराग हुआ |
भगवद्धक्तको तो सभी चीजें तुच्छ दिखायी देनी चाहिये ।
२. याद रकक््खो नाम मन्त्रसे भी बढ़कर है; क्योंकि
मन्त्रजपमें तो विधिकी आवश्यकता है, किन्तु नामजपें
कोई विधि नहीं है । नाममें इतनी दाक्ति है कि इससे
संसारसमुद्र भी सूख जाता है । श्रीगोसाइंजी कहते हैं---
नामु ठेत भवसिंघु सुखाहीं । करहूं बिचारु सुजन मन माहीं ॥
३. कर्म और उपासनासे ज्ञानका कोई विरोध नहीं
एक
।
।
|
क्षणमंगुर जीवनकी
मलयाचलकी शुच्ति
कलि-काल.. कुठार
रसनासे अनुरोध
कल प्रातकों जाने खिली न. खिली;
ग्रीतल मन्द
सुगन्ध समीर मिली न मिली |
लिये फिरता,
तन निम्न से चोट बप्विली न झ्िली
कह ले. हरिनाम जरी रतना /
फिर अन्त-समयमें हिली न दिली ॥
कलिका
है, उसका तरिरोध तो अज्ञानसे ही है ।
न्न>नर्दे नम डे
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