सद्बोध सागराः भाग - १ | Sadbodh Sagrah Part-i

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Sadbodh Sagrah Part-i by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९) १८ किसीफे अगाडी दीनता दिखलानीं नह! तुच्छ स्वार्थक खातिर दूसरेके अगाडी दीनता पतानी यॉस्थ नहि है. थदि दीनता-नश्रता करनेका चाही तो सब शावतभानि सब- ज्ञकी करो. क्योंकि वो आप पूर्ण समथ है ओर अपन आश्ितका भीड भांग सकते है. मगर जो आपही अपूर्ण अणफ है वा शरणा- गतकी किस प्रकारसे भीड मांग सके ? स्वज्ञ प्रयुक पास मो विवेक योग्य मंगवी करनी योग्य है. वीतराग परमात्माका किव नरेश अणगारकी पास उच्छ सासारिक सुखको म्राथना_ करन उचित नईि हैं. तिन्होंके पास तो जन्म मरणक दुःख फू कर नगहि। अगर भवभवक दुख जिह्स हट. जाय एसी उपम सॉमशाकाही झाधेन। करनी योग्य है. यर्यपि वीतराभ प्रभु राग छू रात है; तथापि प्रभुकों शुरू भक्ति राग चिंतामणीरत्नकी सादश फां- मृत ह्रए विगर रदेता नहिं. शुद्ध भाफि यहनी ५+ अपन परथाथ योग है. भक्ति कठिन कमेकोभी नशि हो जाता है, और उसीस से संपत्ति सहरहीरमिं आकर भात होती है. ऐसा अपून ठाभ छा कर बवूऊकों भाथ भरने जसी उप्छ पिषय आशसनासे विकछ- यनसे तैसीडी भरार्थना प्रभुके अगाढी करनी के अन्थन करेगी यह कोई प्रकारसे छुशजनोकों मुनासिवह्टी नहिं है. सवे शाफंबत सवज्ञ प्रभुके समीप पूर्ण भक्ति रास निषेक पूरक एसी उउम प्ाथेगा करो थावत्‌ परमारन प्रशुकों पवित्र आज्ानग__ अयुसरननं ण्गि उसा उपभ पुरुषाथ स्पराथधभ।गन करा के 1जरेस मवभवक्का भावट टखकर परमसंपद भातिसे नित्य दिवाली होय, यावत्‌ू परमानप सअकटाधमान हाथ मतब्ब के अनत अबाधत अक्षय सहज धर होथ, सेवा करनी तो. एसही सामान करनी के जिस्स सपक भी स्वामीके समानहदी हो जआव.




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