महान मातृत्व की ओर | Mahan Matritv Ki Or

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Mahan Matritv Ki Or by नाथूराम शुक्ल - Nathooram Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ध पिप्य कडिडा तथा विप का पा प्रद्धि पाठा दी-जावा है । अदपएव इस दिवय को सुच्छ न सममना 'वाहिए । क बालिकाओं की शि्ता फे िपय में लोगों में झमी दफ काफी अनुदारता समाई शुई है । उनकी दृष्टि में शिक्षा का एफ- माघ पददेश्य नौफरी दै। अतः ये सोचते हैं कि जय हमें अपनी बालिकाओं की फमाई सो स्पाना दो नहीं है, फ्रि दम फर्यों ब्पर्थ को 'झापत्ति अपने सिर लेवें ? वे आठन के एन शब्दों को भूल जतेि हैं कि “सियों के मस्तिप्क की उधता पर मनुष्यों की मुद्धि- मस्ता निर्भर है ।” फभीनकमी उन्दें आशंका पेर हाठी है कि पढ़ा-लिखा देने से अपनी इच्छा पूष्ठि के सापन सुगम दो भाने पर कट पनकी देंपियां कुमार्गगामिनी न हो जायें । किंचनी पृणारपद दै यह आशंका * इसके साथ दी दम यह शिक्षा उन्हें देना नहीं जानते । योग्य शिता किसे करे हैं ९ यह सोचने का कष्ट ही नहीं करते कि शिक्षा द्वारा कसब्य-शान हो जाने पर छियां अपने सतील के मददत्द को फिदना गम्मोरता के साय 'अतुमन कर सकती हैं । परन्तु, हां, शिक्षा के दिपय में इस भात का ध्यान रखना भाषश्यक है कि वह अनिष्टकारी न दो 1 जहां घर में पदे-लिखे व्यक्ति हों, वहां सो लेखक फी राय में वर्समान स्कूली शिक्षा से बचे रददना ही अच्छा है । यदि पिठा, माई या अन्य फोई सम्बन्धी बालिका को ग्रह में ही पढ़ा सफता है, तथ स्कूल की समय नष्टफरनेवालों 'और अल्प परिणाम- दायक शिक्षा-पद्धति को दूर से नमस्कार फरना दो भला है। शिक्षा द्वारा इम तो यही थाइते हैं. कि इमारी देवियां सदी गरहिणी बनें 1 दम उन्हें परिचमी सभ्यता के भयंकर देत्र में




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