विद्याविनोदनाटक | Vidyavinodanatak

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Vidyavinodanatak  by कृष्णानन्द द्विवेदी - Krishnanand Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अछ्ू । ११ मन्वी । नद्दीं सदहाराल ! तीन मजुप्य यात्रामें भ्रशुभ हैं ; था चार नहीं, तो दो चाहिये । प० सु०। अच्छी वात हैं ; वदत भमेला अच्छा नहीं ? बूढ़े पग्डितको ले लेना लो ; नोरड़ ! बच, तुम दोनों भादमी चातचीत करते चले जावोगे ? दू० सु० । भव बिलम्ब नदीं करना चाहिये ? मन्त्री । हां दाँ चले जाव बूढ़ परिड़त को ' ले लेना कहना कि राजानोकी आज्ञा है नागरपुर चलने को 'वलिये ; (राजासे) सद्दाराल | भ्राज्ञा दे दें कि बूढ़े पयिड़तको लेक - जावे । राजा । जाव छमारी शाज्ञा है, बूढ़े को ले लेना भव बिलस्ब सत करो, थीघ चले जावो । नौरंग । मद्दाराज जी चाज्ञा । ( जाता है । ) ( नेपथ्य मेंखे ठाकुरली के मन्दिरसे घण्टे की ध्वनि । ) मन्त्रो । ( चौंककर ) महाराज ! सन्ध्याका समय हो गया खूय्य भी अपनी अंशमालो किरणों को एकत्रित कर अस्ताचलके पाइने इए अब दर्वार विसजनका ससय है । राजा । अच्छा अब आपलोग अपने अपने स्थानको जावे, मैं भी भव निज नैमित्तिक नियमाजुसार सन्ध्याको जाता हू । ( एक घोरसे राला और दूसरी ओर से मन्तरी दोनों सुसा- दिवोंसे इाथ सिलाये इए दर्बारसे चले गये । ) ( सबका प्रस्थान । ) जवनिका पतन । इति प्रथुम् अहन ।




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