अथर्ववेदभाष्यम भाग - 18 | Atharvavedabhashyam Bhag - 18
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
45 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about क्षेमकरणदास त्रिवेदी - Kshemakarandas Trivedi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(३,३९५ ) उथववेदभाष्ये सु० ९ | ५९३ |
लिविनिललिललवलि नि कि अं
पृथिवी प्राइतिक पदार्थों में मी पति पत्नी भाव है, यद्द ठीक नहीं । परमेश्वर
के नियम मनुष्य नदीं समक सकता, जैसे. सूर्य श्रौर प्रथिवी में कण
घारण झ्रादि गुण हैं जिनके कारण उनके बीच बारंबार श्रापस में बूष्टि देने
बौर होने का साम्थ्य है । तू हमें मत ठग ॥ 9 ॥
मन्त्र 5-१२ कुछ झमेद वा मेद से ऋग्वेद मेंहें--१० । १० | दर ॥
| . भी है थे “श3 4. |
यमस्य मा युस्य १ काम अ्ागन्त्ससाने यान सहूशेय्यय ।
१ १ कै व शक ०्चे
जायेव पत्य त॒न्व रिरिच्यि। वि चिद्द वृहेव॒ रथ्यव चुका गन
यसस्ये । मा । युस्य॑सू । काम: । सा । सगन् । ससाने ।
१२५३ व ८ भर
यानेंप । सह-शेय्याय ॥ ज़ाया-इंव । पत्य । तन्वसू । रिरि-
च्यासू । वि । चित् । वृहेव । रथ्या-इव । चुक्रा ॥ ८ ॥
भाषाथ-' यमस्य ) यम [ जोड़िया भाई | की ( काम ) कामना
( मा ) मुक्त ( यम्यमू ) यमी [ जोड़िया बहिन ] को, ( समान योनों ) 'पक घर
में ( सददशेय्याय ) साथ साथ सोने के लिये, ( झा श्रगन् ) श्राकर प्राप्त हुयी हे ।
_ ( ज्ञाया इव ) पत्नी के समान ( पत्ये ) पति के लिये ( तन्वम्) |. श्रपना ]
शरीर ( रिरिच्याम् ) में फैलाऊं, ( चित् ) और ( रथ्या ) रथ ले चलने वाले
( चक्रा इव ) दो पहियों के समान ( वि विरहेव ) हम दोनों मिले ॥ ८ ॥
हुँ मे में के
मावाथ--स्त्री का वचन है । तू श्रौर में दोनों एक माता से पक साथ
८-(यमस्य ) यम परिदेषण-श्रचू । एके ज्ञापमानस्य यमजस्य
श्रातुः (मा) माम् ( यम्यम् ) यम डीष् गौरादित्वात् ; यणादेशः । यमीम् । एक-
गर्म जायमानां यमजां सगिनीम् (काम) कामना ( झा झगन् ) शागमसत् (समाने)
'पएकस्मिस्नेव ( योनी ) गे ( सहशेय्याय) अचो यत् । पा० ३। है 2७9 | शीड,_
शयने-यत् । शेयं शयन स्वाथयत् । सदशयनाय ( जाया ) पत्नी ( इच ) यथा
( पत्ये ) स्वभत्रं ( तन्वम् ) तनूमू । स्वशरीरम् ( रिरिच्याम् ) रिचिरू चिरे-
चने । विस्तास्येयम् ( चित् ) श्रपि च ( वि चृहेव ) परस्परस शलेपों चिचहां ।
ब्ावां संशइलेष॑ करवाव ( रथ्या ) तदूुबहति स्थयुगप्रासज्ञमू । पा० ४ । ४ । 3६ ।
इति यत् । विभक्ते: पूवंस वर्णदीघेः । रथ्ये । रथवाइकें ( इव ) यथा ( चक्रा )
क्र ॥
User Reviews
No Reviews | Add Yours...