गीता योग प्रदीपार्य्य भाष्य | Geeta Yog Pradiparyy Bhashya

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Geeta Yog Pradiparyy Bhashya  by पं. देवदत्त शर्मा - Pt. Devdutt Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका श्द गोलोक में कृष्णजी के साथ रासलीला करने का नाम “ मुक्ति ” हैं, और माध्वाचाय्य॑ के मत में सुक्ति चार प्रकार की है झयथात्‌ सालोव्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य -- विष्यु लोक में जारइनें का नाम “सालोक्य” उस साकार विप्छु के समीप जारदने का नाम “सामीप्य” उसके समन रूप चाला दोने का नाम “सारूप्य” और उसके साथ सिंहासनादिकों पर बैठने का नाम “सायुज्य” हैं, इस प्रकार के झवैदिक सिड्टान्तों को मानने से श्राय्यंशाख्र का महत्व नप्मायः हो- रहा ' हैं, इसी कारण विंदेशीय घर्मावलम्ची लोग झाय्यंदशनों पर “*पटदर्शनदर्पणादि!” ग्रन्थ लिखकर यदद सिच्ध करते हैं कि झाय्यों की मुक्ति पापाणतुल्य है, इत्यादि झाक्षेपों का कारण नवीन वेशेपिकादि मत हैं जिनमें केवल दुश्खाशाव को ही सुक्ति माना है, मूल दशरनों में सुख दुःख के अभाव से पत्थर तुल्य होजाने का नाम सुक्ति कहीं भी नहीं, “दुःख जन्मप्रइत्तिदोषमिध्याज्ञानानाम” न्या० १।१। र इत्यादि खु्रों में जो सुक्ति वर्णन कीगई है व अवेदिक नहीं मत्युत वेदिक है, क्योंकि इस सत्र में केवल दुः्खाभाव का नाम सुक्ति नदीं किन्तु दुःखाभाव होने से जो जीव की ईश्वर के सत्यसद्ल्पादि धर्मों के धारण द्वारा दशा विशेष होती हैं उसका नाम शुक्ति है, जैसाकि “जन्मबन्धविनिमुक्ताः पदंगच्छन्त्यनामयस्‌” गी०र। ५१ में कर्मयोगरूप चुद्धि से शरुक्त पुरूप अनामय नाम दुःखरहित पद को भाप होते हैं, पर डस पद में केरल दुः्खा भाव दी नहीं किन्तु दुःखों का अभाव दोकर परमात्मा के निरवधिक सुख की माधि होती है, जैसाकि “रसंहोवायंलब्ध्वानन्दी भवति” इत्यादि वाक्यों में मुक्त पुरुष को आनन्द का भोक्ता कथन किया गया है, उक्त गीता रलोक में न्याय, वैेशेपिक शाख्रों को संगत करदियां कि इन दोनों शास्त्रों में केवल दुः्खामाव का नाम मुक्ति नदीं किन्तु दुगख के झभांत्र तथा इश्वर के स्वरूपभूत छानन्द की उपलब्धि का नाम सुक्ति है, और उक्त न्यायसूतर के यह झर्थ हैं कि तत्वज्ञान के होने से मिथ्याज्ञान नाश दोजाता; सिथ्या ज्ञीन के नाश दोने से दोष नाश दोजाते, दोषों के नाश से मदत्ति;




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