तुलसी और उनका काव्य | Tulasi Aur Unaka Kavya

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Tulasi Aur Unaka Kavya by रामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तुलसी और उनका काव्य पातक पीन, कुदारिद दीन, मलीन घरे कथरी करवा है । लोक कहै, विधिहू न लिख्यो सपनेहू नहीं श्रपने वर बाहे ॥ राम को किकर सो तुलसी समुभेहिं भलो कहिबो न रवा है । ऐसे को ऐसो भयो कवहूं न भजे विन वानर के चरवाहै ॥ (कवितावली ) मातु-पिता जग जाय तज्यो विधिह्व न लिखी कछू भाल भलाई । नीच निरादर भाजन कादर कूकर टरकन लागि ललाई॥। (कवितावली ) जायो कुल मंगन वघावनों बजाया, सुनि भयो परिताप पाप जननी जनक को । बारें ते ललात विललात द्वार-द्वार दीन, जानत हों चारि फल चारि ही चनक को ॥। (कचितावली ) जाति के सुजाति के कुजाति के पेटागि बस, खाये टूक सबके विदित बात दुनी सो । (फचितावली ) छाछीं को ललात॑-- (कवितावली) हृतो सलात कुसगात खात खरि मोद पाइ कोदौ करें । दी के (गीतावली) चाटत रहोों स्वान पातरि ज्यों कवहूँ न पेट भरो । (चिनय-पत्रिका ) जननी जनक तज्यो जनमि करम विनु विधिहूँ सृज्यों अ्रवडेरे, फिरेड ललात विनु नाम उदर लगि दुखउ दुखित मोहि हेरे । (विनय-पत्रिका ) वाल दसाहूं न खेल्यों खेलत सुदाउं में । (वितय-पत्रिफा) स्वास्थ के साथिन तज्यो तिजरा को सो टोटक श्रौचट उलटि न हेरो । (विनप-पश्चिफा) द्वार-द्वार दीनता कही काढ़ि रद परि पाहूं 1 हैं दयालु दुनि दस दिसा दुख दोप दलन छम, कियो न संभापन काहू ।




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