मृच्छकटिक एक आलोचनात्मक अधययन | Mrichachhakatik Ek Alochanatmak Adhyayan

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Mrichachhakatik Ek Alochanatmak Adhyayan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मुच्छाटिक का कतूत्व ६ प्रकार द्वितीय शरण ई० या तुतीय शा० ई० मृच्छरुटिक के निर्माण न्काल की उपरि- तम सीमा हुई । निम्नतम सीमा के सम्बन्ध में विभिन्‍न सत टै-- आाचापं वामन की मान्यता--वामन ने अपनी काव्यालंकारशुषवृत्ति में मुच्छकटिक का उल्लेख किया है। वामन का रामय ८ वी झा० ई० माना जाता है । यह मुचयरटिक के निर्माण काल की निम्नतम सीमा है । डा० यलदेव उपाध्याय का मत-- प० बलदेव उपाध्याय जी का कथन है कि दण्डी ने अपने अलंफार-प्रस्थ काइ्पादर में मूच्धकटिक के “लिम्पतीय तमोध्द्धरनि” पद्य को उद्ष्रत फिया है । दष्डी को विद्वान ७ वी श० ई० मो मानते हैं । अत इसी के आसपास मृूच्छकटिक मी रखना को काल होना थघाहिए। डा देवस्यली का मत-- डा० देवस्थली का कवन है कि मृच्छकटिक के दो इनक और एक पक पंबतंती में मितती है । पंच का काल ४ वी शन ई० माता जाता है, अत, मूच्छकटिक का निर्ाण उपी समय होना संभव है । कितु पंचतत्र का काल अभी संदिग्ध है । इसीलिए दण्डी-काल ७ थी श० ई० को ही सृच्दकटिक वी निम्नतम सीमा मानना उचित है । इसी प्रकार कालिदास के काल को ध्यान मे रखते हुए मृच्छटिक का काल ई० पू० २०० से लेकर ७ वो श० ई० अयवा रैसरी थ० ई० से लेकर ७ वी श० ई० तक मिद्ध होता है । धराहूमिहिर के आधार पर निणप उपोनिपशास्त्र के विदा यरादमिहिर ने बुहस्पति को मंगल का मित्र माना है, किस्तु मूच्दकटिक के सवम अंक से आधिकरणिक के द्वारा बहें गये 'अद्भारक- विदद्धय” दस्यादि इलोक मे बृदसपति को मंगल को शत्रुप्रह साना गया है। शम्भवत, वराहमिटिर से पूर्व यहू सिद्धान्त (बृहस्पति को मंगल को शत्रुप्रह मानना) प्रचलित रहा होगा । वरादमिहिर का समय छुठी० श० ई० माना जाता है। अत मुन्छकटिक का निर्माग-कात (पप्ठ दा० ई०) से भी पहने सिद्ध होता है । कुछ विद्वानु 'सद्ारकविदद्श्प' इचोक को दूसरा अरे सानते हैं । उनके अनुगार इस इतोक का सात्यर्य केवत इतना ही है कि जिस पुरुष का मगलप्रह विरुद्ध है तथा जिया बृद्स्पति भी क्षीग है, उसके पास घूमफेनु की तरद इस अन्पप्रह का उदय हुआ' । प्रस्तुत अब में मंगल और दुददस्पति के परस्पर विरोधमाव अथवा घत्रुभाव की कोई बात नहीं है। अत. इस इतोक पर आश्रित कहपता को मुग्द्कटिक के निर्माण काल का आधार स्टीदार करना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता । १० दर्डी, कास्यादश २/२९६ २. मुर्दकरूडिक, 12९ ,--३३




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