ऋग्वेदसंहिंता | Yajurvedasamhita
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
536
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)झू० १ै। झ० २॥१वे० ८) ११ [ भर १ । धन ५1 सन २३ै।
॥ २२ ॥ घातयुजा दि चॉथयाधिनावेह गंब्छतामू । झस्प सोम॑स्प पीतपें
॥ १ ॥ या सरथां रथीतप्रोभा देवा दिंविस्पूशा । अखिना ता हवामहे ॥ २ ॥
या वां कशा मधुंपत्य्धिना सूदतावती । तयां यह सिंमिक्षतमू ॥ दे ॥ नदि दाम-
रिंत दूरके यत्रा रयेन गच्छंथः । अधिना सोमिनों गृहमू ॥ ४ ॥ हिरस्यपाणि-
मृतयें सवितारध्रुप हमये । स चेत्तां देवता पदमू ॥ ४ ॥ ४ ॥ झपां नपातमवसे
सवितारपमुपं स्तुद्दि । तस्य॑ ब्रतान्पुरमसि ॥ ६ ॥ विभक्तारं हवामडे वसा शित्रस्थ
राघंसः । सवितारें नुचदसम् ॥ ७ ॥ सखाय शा नि पींदत सचिता स्तीस्यो नु
न॑ं। । दाता राधासि शुम्मति | ८ | झरने पत्नीरिहा वह देवानासुशतीरुप ।
त्वष्टारं सोम॑पीतये ॥ £ ॥ आआ ग्रा झंग्र इदावंसे होत्रीं मविष्ठ भारतीमु । व्ंत्री
विषणां वह ॥ रै० ॥ ५ ।। झमि नो देवीरवसा महः शर्मणा नुपरनीं। । अच्छि-
झपत्राः सचन्तामू ॥ ११ ॥ इृहेन्द्राणीमुप ढूये वरुणारनी स्वस्तयें । श्मायी सो-
मंपीतये ॥ १२॥ मही योः एंयिवी च॑ न इमं यह मिंमिक्षताम् । पिएतां नो भरीं-
ममिः ॥ रै३॥ तयोरिदयृतवत्पयों विप्रा रिदन्ति धीतिर्मि: । गन्धवस्थ धवे पढे
!। १४) स्थोना प्ंथित्रि भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा न शर्म सप्रथ। ॥ १४॥६||
ध्तों देवा झवन्तु नो यतो विष्णुविंचक्रमे । पुथिव्या! सप्त घाममि। ॥ ६ ॥!
इद विष्णुर्चि चक्रमे त्रघा नि दधे पदम् । समूक्रहमस्य पांसुरे ॥ १७ ॥ त्रीरशिं पदां
वि चंक्रमे विष्णुरगोंपा झदा भय! । झतो घमाणि घारयन ॥ १८ ॥ विष्णो। कर्मों-
शि पश्यत यतों वतानिं पस्पशे । इन्द्रस्प युज्य। सरख खा ॥ १.॥। तद्विष्णों! परम
षद॑ सदा पश्यन्ति सुरय! दिवींव चचुराततमू ॥ २० ॥ तद्िप्नसों विपन्यवों
नागुवांसः स्मिन््धते । विष्णोयेत्परम पदमू ॥ २१ ॥ ७ ||
॥ २३ ॥ रै--रेठ मेघातिथि: काएव ऋषि: ॥ देवता--१ वायु: । २, ३ इस्द्वायू ।
3--द मित्रावददयो । ७-६ इस्द्रों मदत्वान् । १०-१२ विश्ये देखा: । १३-१४ पूषा ।
६--रेर झाप: । र३--र४ झाग्नि: ॥ छुन्द:--१--र८ गायत्री । १६ पुरउन्शिक । २०
प्रचुष्डुप। २१ प्रतिष्ठा । २२-२४ झनुष्डप ॥ स्वर रेप, २१ पड़ज: । १६ कपशा
२०, २२-२४ शास्वार: ॥
॥ २३॥ तीव्राः सोमांस झा गंदयाशीवन्तः सता इमे । बायो तान्प्रस्थिता-
न्पिच ॥ १॥ उमा देवा दिंविश्परोन्द्रवायू हंव।महे । झस्य सोम॑स्य पीतयें ॥ २ ॥।
इन्दवायू मनोजुवा विश्रा हवन्त ऊतपें । सदस्ाधषा घियस्पती ॥ ३ ॥ मित्र बयं
ककयदद्यश न्वदाय, चनिसयोवि
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