प्राकृत विमर्श | Prakrat Vimarsh

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Prakrat Vimarsh by डॉ. सरयू प्रसाद अग्रवाल - Dr. Sarayu Prasad Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ः [ है. ] “प्रकृते: संस्कताद श्रागतमु प्राकतम |” पप्राकृत--संजीवनी' में संस्कृत को प्राकृत की योनि माना गया हे--“प्राकृतर्य तु स्वमेव संत्कृत॑ योनि: ।” काव्यादर्श की 'प्रेमचन्द्रतकंवागीश' कृत टीका में संस्कृत के प्रककृत रूप से प्राकत को उत्पन्न दिय, गया है--“संस्कृत- रूपाया: प्रकृते: उत्पननत्वात्‌ प्राइतम्‌ ।” 'प्राछत-चन्द्रिका” के श्राघार पर पेटर्सन ने संस्कृत को ही प्राकृत का प्रक्नत रूप माना है--'्रकृतिः संस्कृतम' ( तन्र भवत्वात्‌ प्राकृत॑ स्मृतम्‌ ) । “'पड्साघा-चन्द्रिका' में प्नरसिंह ने संस्कृत के प्रकृत रूप के विकार से प्राकृत की उत्पत्ति सिद्ध की है--'प्रकृतेः संस्कृताया: ठु विकृतिः 'प्राकृती, मता । 'वासुदेव” ने प्प्राकृतसबंम्‌' में इसी मत को स्वीकार किया है । प्रसिद्ध व्याकरण हेमचन्द्र ने भी इसकी पुष्टि--'प्रकृतिः संस्कृतम्‌ तन्नभवस्‌ तत्‌ श्रागतसु वा प्राऊृतम' कहकर की है । 'मार्कणडेय' ने “प्राकृत-सर्वस्त्र' में संस्कृत को प्रक्कति मानकर उसी से प्राकृत का विकास दिया है--'प्रकृतिः संस्कृतम्‌ तन्रभवम्‌ प्राकृतम्‌ उच्यते ।” “नारायण” ने रसिकसवंस्व' में प्राकृत श्र अपगभ्र'श दोनों को ही संस्कृत के श्माघार पर विकसित माना है--'संस्कृतात्‌ प्राकतम्‌ इष्टम्‌ ततोध्पश्रंशभाषाणम्‌ ।” “धनिक' ने “दुशरूप' में प्रकृत रूप से प्राकृत का विकास श्र संस्कृत को उसकी प्रकृति साना है--'प्रकृते: झागतम प्राकृतम प्रकतिः संस्कतम ।” ध्शंकर' ने 'शाकंतलम' में संस्कतत से विकसित पाकत को श्रेष्ठ और फिर उससे, दपभ्रश का विकास दिया है--'संस्कृतात प्राकृतम श्रेष्ठमू ततोधपश्न॑ंदाभाषणस्‌ । । इस प्रकार उक्त मतों से स्पष्ट होता है । कि संस्कत को.ही झाधार लेकर प्राकत भाषाओं का. विकास इुश्रा । पहले कहा ही जा चुका है कि संस्कत को रूढ़ रथ में लेने से प्राकत की उक्त व्याख्याएँ ब्पासाशिक त्रौर असंगत ही होंगी क्योंकि प्राकत मापात्यों के स्वरूप-- गठन को देखने से यह छिद्ध नहीं होता । पप्रकति” का आशय स्वभाव ' ब्थवा जनसाघारणु से भी लिया जाता है । इसीलिये हरिगोविंददास




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