हिंदी के आंचलिक उपन्यास और उनकी शिल्पविधि | Hindi Ke Aanchalik Upanyas Aur Unki Shilpvidhi
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
354
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्र
व्यक्ति । वार्वालाप बी दाली भी उपन्यासकार वी योग्यता व क्षमता वी परिया-
यक होती है और उनकी भाषा उपन्यास को अधिक रोचव व स्वाभाविक वनाती
है। इस प्रदार यदि ध्यान से देखा जाये तो उसके वार्य अन्य सभी तहवों से सब-
थित्त ही होते हैं। यह स्वीकार वरने मे कोई आपत्ति नही है कि वार्तालाप की
बला दिखाने मे लिये अलग अध्याय वन सकता था परन्तु वह निम्न कारणा से
आवश्यक नहीं समभा गया. प्रथम, जिन विशिष्टताओं को कथा-शिल्प, पात्र
एवं चरिन्नागमगत शिल्प, जीवन-दर्शनगत शिल्प, भाषा शिल्प एवं दौली शित्प
दे अतर्मंत स्पप्ट बर् दिया गया था उन्हीं वी प्रथव्ू अध्याय में पुनरावृत्ति होती ।
द्वितीय, अनेज उपन्पासी में वार्तालाप को महत्ततपूर्ण स्थान मिला ही नहीं है,
विशेष रूप से नागार्जुन के उपन्यासा में । अचलों के निरूपण में भाषा का महत्व
हो समक में आता है, वार्तालाप वा नही । तीसरी बात यह है कि आचलिव
उपन्यासो के वार्तानाप अन्य उपन्यासी के वार्ताशप के समान ही होते है।
उनकी वही विशेषताएं भी होती है जो अच्छे वार्तालाप की होनी नाहिए अर्थात्
बातलिप को दृष्टि से आचलिक उपन्यास वी अपनी वीई विधिप्ट उपसब्धि
नही होती, जो होती है बह उनके भाषा रुपो में निहित होती है जिस पर भाषा-
शिल्प थे अतर्गत पृथक रुप से विचार वर लिया गया है ।
इस प्रकार वार्तालाप पर पृथक् रुप से विचार न बने वा उद्देश्य प्रबंध को
अनावश्यक विस्तार से बचाना ही था । परन्तु जहा आवश्यक संभभा गया वहा
विस्तार मे सकोच नहीं किया गया है। इसीलिए भाषा और शैली पर अलग से
दो भिन्न अध्यायों में विचार वरना उचित समभका गया अन्यथा भाषा शैली को
एक ही तत्त्व मान लिया जाता है और उन पर एक साथ विचार करने वी प्रवृत्ति
ही अधिक पाई जाती है । परन्तु आवलिक उपन्यासों की विशिष्टता इन दोनों
तत्वों मे भी उतनी ही सीनता से अभिव्यवत होती है जितनी की अन्य ततत्वी में
इस प्रदार भाषा यौर दौली को दो भिन्न अध्यायो का विपय बनाने का उद्देश्य
अनिवा् विस्तार को अभीष्ट स्थान देना था 1
आचलिक उपन्यासों का अध्ययन तव तक पूर्ण नही हो सकता था जब तक
उनके साहित्यिक महत्त्व पर भी विचार न कर लिया जाता । आज जब एक ओर
साहित्य एवं असाहित्य में अतर वरना कठिन होता जा रहा है और जब आच-
लिक विधा की एक सिनन साहित्यिक विधा स्वीकार करने में क्तिपय विद्वानों को
सकोच भी होता है तब अानलिक उपन्थासो के साहित्यिक महत्व पर विस्तार से
विचार करना आवश्यक था । उपन्यास के रूप में, कलाइति के रूप में, लोक-
साहित्य के रुप में आचलिक उपन्यासों पर विचार कर लेने के उपरात देशी-
विदेशी आचलिक उपन्यासों का भी सक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत कर दिया गया है.
जिससे यह भी स्पप्ट किया जा सके कि आचलिंक्ता वी प्रवृत्ति अत्यत स्वाभा-
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