शकुंतला उपाख्यान | Shakuntla Upaakhyan

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Shakuntla Upaakhyan by कालिदास - Kalidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शकुन्तला 1. त्द। बेव्यों जाय सघुर अधरन पर #. ससकि ाथ तथब हों कक्षरायों । उड़ि अलि गयो फ़ेरि फ़िरि आयो ॥ शवुन्तला द्वां ते टरि आई | पोछे स्त्रमर लगो दुखदाई प्र शकुन्तला परुनि जित जित डोले । तिति तित स्रमर गुजरत बोले ॥ राजा निरखत सन अनुरद्यो । सन मन मधघुकर सो अस कच£्ो ॥ ४४॥ घनाक्षरी छन्द । न आओठन समोप पान गुंजततो सड़रात मानों बतकदझो को | _ लगावत लगन कौ । चंचल टगनि को पलनि करो छोभित | ' ऋंछु्नो फिर आनि कर कपोल फलकन हो / प्यारी सस- | | कनि भऋदरावति करति तुम उड़ि उड़ि बैठत पियत अघरन | हो । दुरि दुरि दूरि हौ ते देखत खड़े रचत मानो दम कौने | . काज मधघुप तुस घन्य डो ॥ ४४ ॥ 'चौपाई । शकुन्तला केतो कक करे । . संग तें सघुप न टास्थों टरे # . बन में सघकर बचुत सताई है _शकुन्तला यह टर सुनाई ॥




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