डॉ॰ बी॰ आर॰ अम्बेडकर व्यक्तित्व एवं कृतित्व | Dr. B. R. Ambedakar Vyaktitv Avam Krititv
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अध्याय--ुह
गीपन
जन्म एवं बचपत
श डॉ० अम्वेडकर को श्रपना जीवन-निर्माणा करने में श्रनिक प्रकार की मुसीबतों
एवं कष्टों का सामना करना पड़ा । उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि निधेनता की एक
कहानी है । उनको पैतृक रूप में कोई घन-सम्पत्ति प्राप्त नहीं हुई, क्यों कि भ्रछतों
के पास धन-सम्पत्ति इकटूठी हो, ऐसा सामाजिक वातावरण नहीं था; लेकिन
उनके पिता घनी वगं के न होते हुए भी समाज के प्रतिष्ठित, सम्मानित तथा
ईमानदार व्यक्तियों में से थे । उनकी श्राथिक स्थिति श्रच्छी न होने के कारण घर
के खर्चे का निर्वाह सुचारु रूप से नहीं हो पाता था । ऐसी श्राथिक विपन्नता की
हालत में वह श्रपने बच्चों को भली -भांति सुशिक्षित बनाने में संफल हुए । इसका
एक मुख्य कारण यह था कि वह श्रात्म-सम्मान को श्रपने जीवन का झ्रद्ध मानते
थे जिसे डॉ० श्रम्बेडकर ने धरोहर के रूप में सह्ष स्वीकार किया था ।
महाराष्ट्र के श्रछूत समूहों में महार जाति प्रमुख है । इसी जाति में डॉ ० श्रम्बे-
डकर पैदा हुए थे । महार जाति की बस्ती गांवों के बाहर होती है जिसे 'महारवाडा”
कहा जाता है । यह शब्द निस्दात्मक भावार्थ में प्रयुक्त किया जाता है । 'महारवाडा'
गन्दे लोगों की गत्दी बस्ती का प्रतीक माना जाता है। सभी श्रछूत जातियों में
महार लोग ही बड़े हुष्ट-पुष्ट, समायोजनशील, बहादुर, लड़ाकू श्रौर बुद्धिमान होते
हैं। कहा जाता है कि ये महार लोग ही महाराष्ट्र के सूल-निवासी थे । महाराष्ट्र को
थे लोग 'महार-राष्ट्रर मानते हैं । “'महार' शब्द की उत्पत्ति 'महा-श्ररि' से मानी
जाती है जिसका रथ है 'महान शत्रु । श्रछुत जातियों में महार लोग ही प्रथम थे
जो भारत में श्राने वाले यूरोपियन लोगों के सम्पक में श्राये । ईस्ट इण्डिया कम्पनी
की बॉम्बे ग्रार्मी में उन्हें भर्ती किया गया ।
डॉ० श्रम्बेडकर के दादाजी मालोजी सकपाल श्रवकाश प्राप्त सनिक
न्यक्ति थे । एक श्रच्छे महार परिवार से उनका सम्बन्ध था । उनकी दो सन्तानें
जीवित रहीं । एक पुत्र रामजी सकपाल जो श्रागे चल कर श्रम्वेडकर के पिता
क्हलाए श्रौर टसरी पुत्री मीरां । श्रस्बेडकर के पूर्वेजों का पुराना गांव “अम्बावाडे'
रत्नागिरि जिले के एक छोटे से शहर मण्डनगढ़ से पांच मील दूर था । उनके पुवंज
सपने गाँव में घामिक त्यौहारों के समय देवी-देवताथ्ं की पालकियां उठाने का
काम किया करते थे जो उनके पारिवारिक सम्मान का दोतक था । उनके परिवार
के सभी सदस्य सन्त कबीर के भक्त थे । भ्रतएव छुम्नाछूत में उनका कतई विश्वास
नहीं था। वे यह मानते थे कि “नाति पांति पूछे ना कोई, हरि को भजे सो हरि
का होई ।*
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