जैन गीतावली | Jain Geetavali

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Jain Geetavali by पं माणिकचंद जी साहब - Pt. Manikchandjee Sahab

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५९) वांधकर सेठजी वन बेठें, ऐसी ही एक दीन पुत्री ने सगाई के धक्त अपने वापसे कहा था. छंद-पांच सो तो पहिछें छीने तीन सौ की आरती ॥ तुम काकाजी भूर गये हो में तो इती हजार की ॥ खोटे खरे परख ढीजो में होजाऊंगी पारकी ॥ म॑ं रॉऊंगी तुम्हरे जी को; तुम होओगे नारकी ॥ ३ ॥ जिस प्रकार, कसाई बकरी, गाय आदि पशुओं को पाठ- कर फिर उन्हें निर्दयी होकर मारता ३, वैसे ही ये जाति के छुपूत, भाडखाऊ अपनी पुत्रियों को पाठकर उनके गले में शिखा बांधकर अंधे छुए में पटकते अथोत्‌ जल्दी मरनेवालें सफेदपोश बुहो को अधिक धन छेकर बेंचदेते हूं जिससे वे एक दो चार जाकर दी विधवा होजातीं और वहडुधा खोटे २ कमें करने ठगती हूं, कसाइं तो पथुओंका चध करता ओर अपने बच्चों को पाठता ह परन्तु ये दुष्टतो मनुष्यां का वध सोभी अपनी गरीव गयां अथात्‌ पुत्रियां का नाद्य करते हं॥ इसखिये इन्द कसा के वावा समञ्चना चाहिये; इनके मुंह देखने स पाप रुगता आर दछनेसे नहाना होता ह ॥ कन्या वेचनेवारख का धर नरक समान ओर धन विष्ठा समान हे. यदि सच कहाजाय तो इस पाप के भागी जाति के वे मुखिये धनवान और पंच जोग हं जो इस कुरीतिके सहाई ह ओर जो जान वृञ्चकर गरीव ख्डकरियो का गला कटवाते ओर आप ऊंचा




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