पनघट | Panaghat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साघुकी हर तरहसे परीक्षा की, ओर वह हर तरहसे म्वरा सोना निकला । आदमियोंमें कई दोष होते है, संन्यासीम एक भी न था । महाराज एक दिन बड़ी नम्रतापे बोले, “ स्वार्माजी, राजकुमारी काबेता साखना चाहती है । मैंने बहुत ढूँढ़ा, परन्तु ऐसा आदमी कोई न मिला, जिसपर विश्वास किया जाए । ”” सेन्यासीने अधी वातसे पूरा भाव समक लिया, श्रौर बिना सङ्कोचके उत्तर दिया, जव तक यहाँ हैं, हम पढ़ा दिया करेंगे । '* महाराजके मनकी मुराद पूरी हो गई । राजकुमारी कविता सीखने लगी । र चार मह्दीनेके वाद महाराजने संन्यासीत पूछा, “ राजकुमारी उषाने क्या सीखा १ ”? संन्यासीने मनको मोह लेनिवाली बड़ी बड़ी और सतेज अंँखिंसि महाराजकी श्र देखा, श्रौर मुस्कराकर उत्तर दिया, ^ कवि पिताकी बेटी है, बहुत कुछ सीख चुकी । इतने थोड़े समयमें कोई दूसरा आदमी कुछ भी न साख सकता । मगर. राजकुमारीकी कविता देखकर खुद हम भी दज्ञ रद्द जाते हैं | ”” महाराजको ्माश्वर्य्यं हुआ, “' मगर केवल चार मर्हानोमिं ? सेन्यासीने उत्तर दिया, “ राजन्‌ , कवि बनते नहीं, पैदा होते हैं । आगकी चिनगारियाँ राख तले सोई रहती हैं; कविताकी कला सीनेमें छिपी रहती है। गुरुका काम केवल यह है कि राख हटाकर कविताकी उन चिनगारियोंको सचेत कर दे, आग अपने शाप सुलगने लगेगी । इसके लिए यत्न करनेकी भी जरूरत नहीं । हृवाके कोंके ही उसके लिए घीके छुटि बन जन्ते हैँ | राजकुमासमे यद शक्तिर्यौ पहले ही मौज थीं, हमने उन्हें केवल जगा दिया है, है




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