प्राचीन भारतीय साहित्य में नारी | Prachin Bharatiy Sahity Men Nari
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
213
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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यस्तु की बाह्य स्मभीयता मानव की आन्तरिकं रमणीयता का अक करती है।* नारी रूप
के लिये भी यह पूर्णतया चरिताथे होता है । नारी-सौन्दयं के प्रभाव ने अनेक दुसचारियों में
पूनीति, शुरचि और संस्कृति का संचार कर दिया है । * ५ ।
सौम्यं साहित्य का राण है--सदय गौर् नीति के साथ शिवत्व का योग जिस संपूर्ण
सौन्दर्य की सृष्टि कराता है, वहू अमुपम रूप से हुदय-हारी होता है । ह्ुस्यातुरंजन काव्य का
प्रधान गुण हैं, अत: कांस्य भथवा साहित्य की प्राण सौन्दर्य हो है । सीन्दये के साथ ही ओआनत्द
श्र लगावस्था अनिवायें रूप से सम्बद्ध हैं, अत: सौ्दर्य-चिनण से ही काव्य का ब्रहानन्द
सहोदरदंव निष्पल हो जाता है, भर उसी थे सना साधारणोकरण भी प्रस्फुट हो जाता है,
म्योंकि सौन्दर्य-बोध समस्त मातवन्वेतना में एक-सा है । सौन्दयं-नोघ से जिस परम सत्म की
उपलब्धि होती है, बहू सभी मानदातह्माओं को 'सावसु्ि की एकता पर पहुँचा देता है । सौन्दर्य
ही मिश्चपैन मानवता और संस्कृप्ति का उद्भावक है, सीन्दर्य-चिष्ठा से ही मव-मातव संस्कृत
होकर नव-नागव के रूप में विकसित होता है ।*
सुन्दर बा है--भतः प्रत्येक साहित्यिक का यह नातेव्य हो जाता है कि बह सुन्दर के
रूप से भलीन्भाँति अवगत हो 1 सौन्दर्य को विश्वदसूप से समाने के लिये सौत्दर्य-शास्त्र क्षे
खनक मनीषि तै प्रथल कयि हैं, जिनमें कुछ परस्पर विरोधी भी हैं । फिर थी हम उनकी
समन्वयात्मक संधि रुप-रेवा इस प्रकार उपस्थित कर. सकते हैं ।
रूप, भोग मौर अभिव्यक्ति के सामंजस्य से सौन्दर्य की प्रतीति होती दै? जो वस्तु
२. सुभिननानन्दन पन््त :---
कहौ खोजरि जाते हो, सुन्दरता औ” नन्द अपार ?
इस मांतिलता में हैं भूततित, अखिल भावनाओं का पार)
मांस-पुक्ति है भाव-मु्ति, आ' भाव-मुक्ति जीवन-उल्लास हर
माघ मुक्ति ही लोक-मुश्ति, भव-जीवन का जी चरम विकासि 1
मासो का दै मोस मातुपी, माक्ष करो इसका सम्मान ४
निभित करो मीस का जीवन, जौवन-पस कसो निर्माण ।
--लीकन-मोस--युणवाणी,
२. रम्य सृष्टि हो स्प जपत् की, रम्य धरः श्ृद्धार ,
बाह्य रूप हो सम्यव्स्तु का, हौगे रम्थ विचार ।
का रूप निर्माण ; बुगवाणी,
सुन्दर ही पावन, संस्कृत हौ वावत सिस्य ॥
सुम्दर हो भू का मुख, संस्कृत जीवन-संचय !
सुम्दर हो भव-मालय, संस्कृद जड़-वेतन-समुदय,
झुन्दर नव-मानिव, संस्कृत भव-मानव की जय !
पेखिए---सूत जगत्--'युगवाणी' {
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