युद्ध विषयक आधुनिक युगीन हिन्दी काव्य रचनाओं का अनुशीलन | Yuddh Vishayak Adhunik Yugeen Hindi Kavya Rachanaon Ka Anuseelan

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Yuddh Vishayak Adhunik Yugeen Hindi Kavya Rachanaon Ka Anuseelan by चन्द्रिका प्रसाद -Chandrika Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से अधिक श्रद्धेय भी | युद्ध का मूल, मनोभाव एवं मनोजगत है, मनोजगत कामनाओं से युक्त है । कामनाएं संकल्प-विकल्प के रूप में मानव मन को मानव चेतना को स्वप्निल बनाती है और यह कामनाएं युद्ध और विनाश की ओर ले जाती है | गीता दर्शन के आधार पर युद्ध का कोई बहिरंग कारण नहीं होता उसका कारण चित्तवृत्तियों में विद्यमान रहता है| युद्ध के अनेक कारणों पर विचार करते हुए राष्ट्रीय और अन्तर्गष्ट्रीय घटना चक्रों के मतमतान्तर प्रस्तुत किए है. किन्तु मेँ गीता दर्शन से अपने को जोडती हुई यह अनुभव करती हूं कि वस्तुतः मानव चेतना के अन्तर्पटल पर होने वाले दन्द संकल्प, विकल्प, मनोरथ, कामृनाए, स्वप्न, अभाव ओर भाव-पूर्तिं हेतु प्रयत्न संघर्ष आदि एसी प्रक्रियाएं हैं जो मानव जगत मेँ घटित होती है पुनः चेतना का प्रतिबिम्ब ओर अन्तर्जगत जगत की घटनाओं का प्रभाव बाह्य घटनाओं के रूप में आकार लेता है | अतः युद्ध के जितने भी कारण बताए गए हँ उनमें आंशिक सत्य होने कं बावजूद वास्तविक सत्य तो यही है और मनोवैज्ञानिक आधार को सर्वोच्च महत्ता प्रदान किए जाने के पक्षम ) मेरी मान्यता विद्वानों को भी मान्य होगी एेसा मेरा विश्वास हे | श्रीमद्भगवद्‌ गीता मेँ सीधे युद्ध तो नहीं, किन्तु / कामनाओं के जन्म ओर उसके परिणाम का जो उल्लेख छन्दाँ में प्राप्त होता है उसे हम युद्ध का भी कारण मान सकते हैं/क्योंकि युद्ध भी तो एक कामना है और कामना के बिना तो कुछ भी नता सकता। कामनाएं अंतरंग हैं युद्ध भी अंतरंग है| द के ४ \ (| ए 0 (ब)- रामायण के युद्ध प्रसंग 2 रामायण को लंका मेरी मीमांसा का लक्ष्य उसमें वर्णित युद्धं तक ही सीमित हे । भारत के प्रमाणिक ग्रन्थों में जहां कहीं भी युद्ध का वर्णन मिलता है तो उसके दो मुख्य लक्ष्य दिखाई पड़ते हँ । पहला तोयह कि दुष्कृत्य करने वाले शासनाध्यक्षों से सत्ता की शक्ति लेकर सज्जन लोगों के हाथ में सौंप दी जाए और दूसरा. लक्ष्य यह होता है कि हम सबके अन्दर आसुरी एवं देवी प्रवृत्तियों का युद्ध निरन्तर होता रहता है उसे हम किस प्रकार नियन्त्रित कर अपने अन्दर केवल दैवी प्रकृति को प्रतिष्ठित करें । भारत के धर्म ग्रन्थों मेँ वर्णित पौराणिक युद्धों कोसमझने के लिए यह आवश्यक है कि शासन के बारे में यहां के ऋषियों के दृष्टिकोण को भी समझ लिया जाए। उनके अनुसार पृथ्वीतल पर रह रहे जीवों पर तीन प्रकार की शासन व्यवस्था लागू रहती है। पहली मानवीय जो राजाओं अथवा शासनाध्यक्षों के हाथ में रहती है, दूसरी ब्रह्माण्डीय या दैवीय जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा राजा इन्द्र के नेतृत्व मं तैंतीस करोड देवताओं द्वारा संचालित होती रहती है. तीसरी परम सत्ता जिसके अवतारी भगवान श्रीराम ओर श्रीकृष्ण सर्वविदित हैँ । इस सिद्धान्त को लक्ष्य मेँ रखकर रामायण मे वर्णित युद्ध प्रकरणों की मीमांसा आगे प्रस्तुत की जा रही है। रामायण काल की सामाजिक परिस्थिति इस काल में सामाजिक परिस्थिति इस प्रकार की बन चुकी है कि सर्वत्र आसुरी प्रवृत्तियों का बोलबाला हे | पृथ्वीतल पर सारी आसुरी प्रवत्तियों का संचालन लंकापति रावण के हाथ में है । कहने को तो भारत के अनेक भागों में क्षेत्रीय राजाओं का शासन है जैसे- दशरथ जी, जनक जी आदि। लेकिन किन्हीं भी राजाओं म यह सामर्थ्यं नहीं है कि वह रावण का विरोध कर सके | रावण इतना विद्वान ओर शक्तिशाली है कि उसने ` अध्याय-प्रथम दर. ४




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