सुबोध जैन पाठशाला पार्ट-११ | Subodh Jain Pathshala Part-ii

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Subodh Jain Pathshala Part-ii by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुत्र-विभाग--१. प्रवेश प्रइनोत्तरी | ५ को पूर्ण नष्ट कर देते हैं । ग्रतः विराघकता ग्रौर सम्यक्त्वादि के विनाश से बचने के लिए भी प्रतिक्रमण श्रावश्यक है । प्र०. कायोत्सग किसे कहते है ? उ० १ श्रज्ञान, मिथ्यात्व, श्रन्नत रादि की सामान्य शुद्धि के लिए श्रथवा २. श्रनजानमे लगे हुए भ्रतिचारों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के रूप मे नियत कुछ समय तक देह की ममता छोडकर तीर्थकरो का ध्यान लगाना । प्र० : कायोत्सगं अ्रावर्यक क्यो है ? उ० मागे मे चलते हुए जो कटि पैर मे लगकर घाव करके घाव के भीतर रहे रक्तं को विषाक्त कर देते है, उन काटो को निकालने के साथ उनके द्वारा किये हुए घाव मे रहे हुए विषाक्त रक्त को निकालने के लिए चमडो को इधर-उधर दबाने से होनेवाले दुख के प्रति ध्यान न देते हुए जैसे चमडी को इधर-उघर दबाना भ्रावर्यक होता है, जिससे वह विषाक्त रक्त निकल कर घाव शुद्ध हौ जाय, उसी प्रकार भ्रविवेक श्रसावधानी श्रादि से लगे प्रतिचारोसेजो ज्ञानादि मे घाव पड़ने के साथ रक्त विषाक्त बन जाता है, उसे निकालने के लिए देह-दुख की ममता छोड़कर कायोत्सगं करना भ्रावश्यक है जिससे वह विषाक्त रक्त निकल कर ज्ञानादि के घाव शुद्ध हो जायें । प्र० प्रत्याख्यान किसे-कहते है ? उ० : १. अज्ञान, अब्रत, मिथ्यात्व भ्रादि को कुछ विशेष शुद्धि के लिए श्रथवा २. जानते हुए लगे अ्रतिचारो की शुद्धि के लिए प्रायदिचत्त के रूप मे नमस्का र सहित (नवकारसी) श्रादि प्रत्याच्यान धारण करना श्रथवा ३. प्रायरिचत्त न लगने पर भी तप के लाभ के लिए प्रत्याख्यान करना !




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