जैठवे रा सोरठा (इतिहास और काव्य) | Jaithve Ra Soratha (itihas Aur Kavya)

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Jaithve Ra Soratha (itihas Aur Kavya) by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ जेववेरासोरठा : ११४ तभी इस प्रकार की गाथाश्रों के शोध व अध्ययन पर किया जाने वाला श्रम सच्चे साने मे सार्थक होगा । प्रस्तुत प्रेंमगाथा राजस्थान मे शताब्दियों से प्रचलित है । जेठवा के सोरठे हर काव्य-रसिक की जबान पर रहे है और ग्राज भी है, पर एक साथ झ्राठ-दस सोरठो से भ्रधिक सोरे बहुत कम व्यक्तियो को याद है । प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थो ` मे भी इन सोरठो का संकलन हमारे देखने मे नही श्राया इसलिए कितने ही लोगो से सुन-सुन कर ही इन सोरठो का सकलन किया गया। कई लोगो ने किसी सोरठे को थोडे शाब्दिक हैर-फेर के साथ सुनाया जिसका प्रयोग पाठान्तर के रूपमे किया गया है । गुजराती साहित्यमे इस दिशामे काफी कायं हूना है। स्व० भवेरचन्द मेघाणौ हारा सकलित सोरठे उनकी टिप्पणी सहित हमने परि- दिष्ट मे दे दिये है । इस प्रेमगाथा का प्रादुरभावि लगभग १५बवी शताब्दीमे माना गया है, जहाँ से राजस्थानी श्रौर गुजराती का विभक्त होना प्रारम्भ होता है । यद्यपि समय के साथ भाषा मे बहुत परिवतंन हो गया है, प्रक्षिप्त श्रे भी बहुत जुड गये है, फिर भी रूप और तत्व की हष्टि से दोनो गाथाओं (गुजराती व राज- स्थानी) के सम्बन्ध में विचार किया जा सकता है । अन्त मे कुछ लेख देकर इस गाथा के मूल्यांकन का भी प्रयास किया गया है पर उसे पूणं कदापि नही कहा जा सकता । वैसे यह्‌ पूरा प्रयत्न ही इस केव मे कायं करने वालो के लिए दिशा-निर्देश मात्र है । इन सोरटो के सद्धलन मे वाडाणी ठकरुर श्री भैरूसिहजी ने महत्वपूर्ण योग दिया है । इसके ग्रतिरिक्त नाहटाजी तथा लाठसजी से भी कु सोरठे प्राप्त हए है । कन्दैयालालजी सहल से गुजराती सोरठो के सम्बन्ध मे परामजं मिला है जिसके लिए मै इन विद्वानों का हृदय से प्राभार प्रदर्गन करता हूँ । -नारायणतिह भारी




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