अपरिचिता | Aparichita
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बैंड एक साथ नहीं बजे आर श्रातिशताजी के भाड़ ग्रासमान क सितारों
` को श्रपना मार. सौपकर न जाने कहाँ विलीन हो गये |
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घर के सव लोग रस्ते से आआगबबूले हो उठे । लड़की के श्राप को
इतना गुमान ! कलियुग का चौथा चरण पूरा होने को श्राया! सत्रने
कहा, “देखा जाय, लड़की की शादी वह केसे करता है £ किन्तु लडकी
की शादी न होने का डर जिसके मन में नहीं है, उसको दण्ड देने का
उपाय ही क्या हो सकता है !
सारे बंगाल में मैं ही एक ऐसा पुरुष हूँ जिसे लड़की के बाप ने
विवाह के मण्डप से स्वयं लौरा दिया है। इतने बड़े सत्पात्र के भाग्य में
इतने बड़े कलंक का दाग न जाने किस पाप-ग्रह ने इस तरह मशाल
जलाकर, वाजा बजाकर धूमधाम के साथ लगा दिया ! बाराती लोग यह
कहकर सिर ठोंकने लगे कि व्याह हुआ्रा नहीं ग्रौर धोला देकर हम सव
लोगों को खिला दिया--श्रपने-श्रपने पेट का श्रनन श्रगर वहाँ फक
या जा सकता तो शरफ़्सोस कुछ कम होता ।
मामा यह् कहकर हौ-हल्ला करते फिरे कि विवाह का इकरारनामा
ने का और मानिहानि का दावा करके नालिश करेंगे । हितैपिय
समभा दिया कि ऐसा होने से जो कुछ बाकी है वह भी पूरा हो जायगा ।
कहना व्यर्थ है कि मैं भी खूब बिंगड़ा था | मूँछों पर ताव देता
हुआ सिफ॑ यही मनाता था कि किसी प्रकार शम्मुनाथ निरुपाय होकर
हमारे चरणों पर आरा गिर ।
किन्तु इस श्रक्रोश की काली धारा के पास ही एक श्र धारा बह
रही थी, उसका रंग काला नहीं था । सारा मन उस श्रपरिचिता की श्रोर
दौड़ गया । हायरे ! सिर्फ एक दीवाल भर का व्यचघान रह गया था ।
माथे पर उसके चन्दन अंकित होगा, शरीर पर लाल साड़ी और मुँह पर
लव्जा की लालिमा और दुदय में क्या था सो कैसे ब्रतारऊँ । मेरे कह्पना-
लोक की कल्पलता वसन्त के समस्त फूलों का भार सुक्ते निवेदन करने के
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