दीपशिखा | Deepshikha

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Deepshikha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एते अव्यवस्थित वुद्धिजोवियों में सस्कृति की रेखाये टूटी हुई ग्रौर जीवन का चित्र श्रघूरा ही मिलेगा । केवल श्रम ही जिसे स्पन्दन देता हैं उस विशाल मानवसमूह की कथा कुछ दूसरी ही है। वुद्धिजीवियों से उसका सम्पर्क छुटे हए कितना समय वीता होगा, इसका अनुमाने बिन्दु विन्दु से समुद्र वने हुए उसके श्रज्ञान श्रौर तिल तिल करके पहाड़ बने हुए उसके भ्रमावो से लगाया जा सकता हैं। भराज उसकी जडता की खाई इतनी गहरी शौर चौडी हो गई हूँ कि वृद्धिजीवी उस श्रोर भरँकने के विचार मात्र से सभीत हो जाता है, पार करना तो दर की वात है । साधारणत भारीरिक श्रम भर वुद्धि-व्यवसाय एक दूसरे की गति के भ्रवरोधक है, इसीसे प्राय विचारों की उलभन से छुटकारा पाने का इच्छुक एक न एक श्रम का कार्य भारम्भ कर देता है। इसके श्रतिरिकत गौर भी एक स्पष्ट भ्रत्तर है। वृद्धि जीवन को सूइमता से स्पर करती है, परन्तु उसकी सम्पूषता पर एक व्यापक भ्रविकार वनायें रखना नहीं भूलती । इसके विपरीत, श्रम पूरा भार डाल कर ही जीवन को भ्रपना परिचय देता है, परन्तु उसकी सम्पूर्णता को सब शोर से नहीं घेरता। प्राय वृद्धिव्यवसाय जितनी शीघ्रता से जीवनीशब्ति का क्षय कर सकता है, उतनी भीघ्रता की क्षमता श्रम में नहीं । इसीसे जीवन के व्यावहारिक धरातल पर, वुद्धिव्यवसायी का कुछ शिथिल भौर श्रस्तव्यस्त मिलना जितना सम्भव है श्रमिक का दृढ़ श्रौर व्यवस्थित रहना उतना ही निश्चित । नैतिकता की दृष्टि से भी श्रम मनुष्य को नीचे गिरने की इतनी सुविवा नही देता जितनी बुद्धि दे सकती हू, क्योकि श्रमिक के श्रम के साथ उसकी भ्रात्मा का बिक जाना सम्भाव्य ही है, परन्तु वृद्धिविक्रेंता की तुला पर उसकी भात्मा का चढ़ जाना भ्रनिवा् रहता हैं। श्रम की स्फूतिदायक पवित्रता के कारण ही सब देगों में संव युगो के सन्देगवाहक श्र साधक उसे महत्व दे सके हैं। श्रनेक तो जीवन के श्रादि से ्रन्त तके उसी को श्राजीविका का साधन बनाये रहे । इस प्रकार जहाँ कही जीवन की स्वच्छ ग्रौर स्वाभाविक गति है वहाँ श्रम की किसी न॑ किसी रूप में स्थिति भ्रावश्यक रहती है । केवल श्रम ही श्रम के भार भरर विश्राम देने वाले साधनो के नितान्त श्रमाव ने हमारें श्रमजीवी जीवन का समस्त सौन्दर्य नप्ट कर दिया है । यह स्वाभाविक भी था । जिस मिट से धर वना कर हम अवी, पानी, धूप, भ्रत्वड श्रादि से श्रपनी रक्षा करते हैं वही जब श्रपनी निद्चित स्थिति छोड कर हमारे ऊपर ढहह पढ़ती है तब वद्नपात से कम सहारक नही होत्री । इस मानव-समप्टि में जान के प्रमान ने रुढियो को भ्रतल गहराई देदी है मह मिथ्या नही भर श्रयंवैपम्य ने इसकी दयनीयतता को श्रसीम वना डाला है यह सत्य हूँ, परन्तु सक कुछ कह सुन चुकने पर इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि श्रम का यह उपासक, केवल वृद्धिव्यापारी से प्धिक स्वाभाविक मनुष्य भी है भ्ौर जातीय गुणों का उससे श्रविक विदवसनीय रक्षक भी । इतना ही नही, युगो से सूक्ष्म परिष्कार श्रीर सीमित विस्तार पानेवाली, नृत्य, गीत, चित्र श्रादि कलाश़ों के मूलरुप भी बह संजोये हैँ गौर उपयोगी मित्पो की विविध व्यावहारिकता भी वहं संभाले है। भीवन के सर्प में ठहरने की वह जितनी क्षमता रखता हूं उत्तनी किसी वुद्धिवादी में सम्भव नही । वास्तव में उसके पारस-प्रासाद के लिए वृद्धिजीवी ही विभीपण वन गया श्रन्यथा उसके जीवन में, विकृतियो की इतनी विखरी सेना का प्रवेश, सहन न ह पाता । हमारे कवि, कलाकार भ्रादि वुद्धिजीवियों के विभिन्न स्तरों में उत्पन्न हुए प्रौर वही पते हे । भ्रत भ्रपने वं के सस्कायो का भ्रम- भागी प्रौर गुण श्रवगुणो का उत्तराधिकारी होना, उनके लिए स्वाभाविक ही रहेगा । उनके मस्तिष्क ने श्रपने वातावरण की विषमता का ज्ञान, वहूत विस्तार से सवित किया भ्रौर उनके हृदय ने व्यक्तिगत सीमा में सुखदु खो को बहुत तीव्रता से प्रतुभव किया । विभिन्न सस्कारो की घूप-छाया, विवियताभरी भावभृमि श्र चिन्तन की अनेक दिशाश ने मिलकर उनके जीवन को एक सीमित स्थिति दे दी थी । परन्तु उस एकं स्थिति को सम्पूणं वातावरण म सार्थकता देने के लिए समष्टि का वही सरो भरेक्षित वो जो फूल को समीर से मिलता है सजीव, निदिचित पर व्यापक । जिस समाज में उनकी स्वाभाविक स्थिति थी वह्‌ विपमताम्रो मे विखर चुका था, उससे ऊँचे वर्ग के श्रहकार भ्रौर कृष्निमता ने उससे परिचय श्रसम्भव कर दिया था भ्रौर निम्न में उतरने पर उन्हे प्रामिवात्य के खो जाने का मय था। फलत. उन्होने श्रपनें एकाकीपन के शृत्य को श्रपनी ही प्यास की झाग और निराशा के पाले से ईस तरह भर तिया क्रि उनका हर स्व मुकुलित होति ही भतस गया भौर ्रतयक प्रदर श्रकृरित होते ह ष्रि चला । वीज केवल श्रकेले रहने के लिए, भ्रत्य वीजो की समप्टि नही छोड़ता । वह तो नृतन समष्टि सम्भव करने के तिण्ही एसी पृयक ` स्थिति स्वीकार करता है । यदि वही थीज पुरानी घरती भ्रौर सनातन झाकाश की झवना करके, अपनी असावारणता बनाये रखने के लिए बाय पर उड़ता ही रहे तो ससतार के निकट श्रपना साधारण परिचय भी खो बैठेगा । कवि, कलाकार, साहित्यकार सब, समप्टिगत विश्ञेपताश्रो को नव नव स्मो में साकार करने के लिए ही उससे कुछ पृथक छड़े जान पते है, परन्तु यदि वे श्रपनी श्रसाघारण स्थिति को जीवन की व्यापकता में सावारण न वना सकें तो श्राइचयें की वस्तु मात्र रह जायेंगे। महान से महान कलाकार भी हमारे भीतर कौतुक का भाव न जगा कर, एक परिचयभरा झपनापन ही जगायेंगा, क्यो बह धूमकेतु मा आकस्मिक श्रौर विधित्र नही, किन्तु श्रूव सा निश्चित और परिचित रह कर ही हमे मार्ग दिखाने में सम है । ही न= पल्द्रहू ज




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