अनंत की राह में | Anant Ki Raah Me (1956)

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Anant Ki Raah Me (1956) by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ अनन्त की राह मैं हारा प्रतिपादित यह धारणा भी लोगो मे जड़ जमाए बेदी थी कक वृत्त ही केव पुणे ज्योमितिक रूप है भौर क्योंकि आकाश में पूर्णरूपों के सिवाय कोई और रूप हो ही नहीं सकते इसछिए इन ग्रहों की भ्रमण-कक्षाओं को वृत्ताकार मानने के सिवाय कोई और रास्ता भी नहीं था । ताल्मी के इस सिद्धान्त में जोड़-तोड़ ठगाकर इसके प्रेमी इसे किसी प्रकार ईसा की सोलहवीं शताब्दी ॐ प्रारम्भ तक तो खींच छाये। बीच-वीच मे यहा-वहां से विद्रोह की भावाजें उठती तो जरूर रदी, परन्तु उन्हँ कठोरता से दाकर पनपने नहीं दिया गया.। सा की चौदहवीं सदी ॐ वाद एेसे अनेक ईसाई पाद्रियों का उल्टेल मिरता दै जो सब, अरस्तू ओर तादी के मत के विरुद्ध; यह कहते थे कि प्रथ्वी ही बास्तव मं घूम रही है ; कि तारों की दुनियाँ बिल्कुछ अछग है और यह भी कि अनन्त देश में प्रथ्वी की अपनी भ्रमण-कक्षा उन तारों को दुनियाँ की अपेक्षा अत्यन्त नगण्य है । इनमे पादरी गिओ डॉनो ब्रूनो प्रमुख थे। श्रूनो ने बढ़े साहस के साथ आगे बढ़कर कहा कि ईश्वर की असीम दया का भुक्ाव ही इस बात की ओर था कि तारों की संख्या असीम हो । उन्होंने फिर यह तर्क किया ; क्योंकि असीम का कोई केन्द्र हो नहीं सकता, इसलिए यह मानना कि सूय अथवा प्रथ्वी ही इस विश्व के केन्द्र हैं, बिल्कुछ असङ्गत ओर अथंहीन है। कोपार्निकस के सिद्धान्त की अपेक्षा, जिसका उल्टेख हम आगे यहीं करेंगे, ब्रूनो के सन्तव्यों ने मानव-




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