श्री जैन स्वेताम्बर तपागच्छ संघ जयपुर का मुख पत्र मणिभद्र पुष्प - २६ | Shri Jain Swetamber Tapagacch Sangh Jaipur Ka Mukh Patra Manibhadra Pushpa-26

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Shri Jain Swetamber Tapagacch Sangh Jaipur Ka Mukh Patra Manibhadra Pushpa-26 by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
शचलगढ़ में सम्पन्न हुई थी । तव से चार वर्ष तक उनके साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुमा । मैने कभी पृज्यश्री के चेहरे पर परिवतंन नहीं देवा । गम्भीर वीमारी का उपद्रव होने परर शन्त भावं से परिपह सहन करते । कभी किसी पर क्रोध या गुस्सा नहीं किया । एक वार ्रहमदावादमें दशापौरवाड सोसायटी की वात है । एक मुनि ने भावेण में साहेवजी को निम्त स्तर की भाषा का प्रयोग किया परन्तु आप एक शब्द भी नहीं बोले । शाम को लव मैं वन्दन करने गया तव पूज्यश्री से पूछा कि श्राप श्री को इस मुनि ने मांडली में ऐसा कहा फिरभीभ्राप कुं नही बोले। तव साहेवजी ने कहा--देख, उस समय वह श्रावेश में था । मैं कुछ बोलता तो वह श्रौर ज्यादा ्रावेश मे भ्राता ्रौर कमं बन्धन करता । यह सुनते ही मेरा हृदव पृज्यश्ची के चरणों में नम गया) रहो, कितनी सहनशीलता, कितनी पाप भीरूता । मुनियों को समभक्ताने की भी ऐसी सुन्दर शेली थी कि गलती करने वाले मुनियों को थोड़ा समय का श्रन्तराल देकर उसको झ्रपने पास विठाकर वात्सल्य भाव से ऐसी हित शिक्षा देते कि वह टूसरी वार गलती करने का नाम भी नहीं लेता । सजगता से क्रिया में मस्त बना देते । वाल दीक्षा को प्रतिवस्थित करने वाले विधेयक को निरस्त कराने में प्रापने श्रपूर्व भूमिका निभाई | ऐसे गुणों के सागर प्राचां भगवन्त की पावन निश्रामें जन शासन के महान प्रभावक सन्त एवं प्रत्यन्त सुदृढ श्रमण संघ तयार हुश्रा 1 शासन प्रभावक विजय रामचन्द्रसुरीश्वरजी महाराज वतमान तपाराधक झ्राचायं विजय सुवनभानूसूरीश्वर जी महाराज श्रादि उदाहरण स्वरूप उल्लेखनीय है । विनय प्रेमसूरीश्वर जी महाराज का जीवन शासन के प्रति प्रेम की सरिता से लबालव भाथा यथानाम तथा गुणी थे । शासन के प्रति समर्पित चफादार सेवक थे । उनके मन में स्व-पर समुदाय का विचार कभी नहीं था । ऐसे महान सूरीश्वर के चरणों में हमारी कोटि-कोटि वन्दना । हमारे संयमी जीवन मे, भी श्रापके दिव्य-श्रनुपम गुणों का अंश मात्र भी हृदयंगम हो, ऐसी भावना के साथ । विपमगता भ्पि न वुधा: परिभव मिश्रां शियं हि वाछंति, न॒ पिवन्ति भौमभग्म! सरज समिति चातका एते। भ्रय--दुःस्यिति से भ्राकन्त होने पर भी मनरवी व्यक्ति श्रनादर युक्त ल्मी को कतर नटीं नादृते । व्याने रटने पर भी चतक धरती का पानी नही पीते, क्योकि उनकी धारणा यद्‌ रानी है कि ये पानी, मिट्टी से सम्पुक्त होगा । 111]




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now