जीवकर्म - संवाद | Jeevakarm - Sanvad

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Jeevakarm - Sanvad by आत्माराम जी महाराज - Aatnaram Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ ) सन्देह-रहित र्हीं हो सक्रता। इसलिषः णमे विवाद-ग्रस्त विषय के वास्तविक स्वरूप को समभ लेने को तुम लोगों को तहत आवश्यकता है । एतद्ध ही मेने तुम्हारे लिए इस विधय को चुना हैं । कितन एक विचारक इस जीवात्मा को कर्मा से सचधा श्रसयुक्घः कतैन्व मोक्षत्वादरि धर्मासि रहित सवथा श्रपरिणामी कूटस्थ रूप सानते हैं । प्रौर कई एक सम्प्रदाय इन कर्मा को ही स्व प्रधान स्वीकार करते हैं । तथा किसी के मत में जीव श्रौर कर्मासि सर्वथा प्रथक्‌ णक नियनि-दोनहार्कोही प्रधान स्थान दिया गया हे । णवं छ्िसी रने जीव रौर कर्मा के संयोग तथा वियोग के लिए. स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में पक ईश्वर तत्व को दी सवंसर्वा स्मभ रकखा हैं । आअच इन उट्दः विचारों में जो तथ्य हैं उसी को मैं तुमांर सामने उपस्थित करता हट । उसको सममः लेन पर जीव त्रौर कर्म के विषय में तुम लोग निःसन्दह हौ जाश्रोगे | भगवान्‌ के इस मधुर भाषण को सुन कर श्रमण-समुदाय क्रो वडा हष हुग्रा, चर मनहीमनम श्रपनको वड़ा ही पुण्यशाली समभने लगा श्रौर भगवान केः जीवकर्मविपयकः उपदेशामरत को पान करने की बड़ी आतुरता स प्रतीक्षा करने लगा । भगवान्‌ क इतना कह चुकने के बाद तत्काल ही उन श्रमर्णों ने वहां पर नौं पुरूषों को हाथ जोड़े भगवान, के सामने खड़े हुए देखा। उनको देखते. ही वे बडे विस्मित दुष्ट । उनमें श्राठों का स्वरूप 'और




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