अनेकांत | Anekant
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
426
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चर्प २ किरण १]
गा
उपरम्भा | १७
वह सव-कुछ कर सकता है । उसकी शक्ति सामथ्यं
सुदूर-सीमावर्तिनी है, ?
मनके सधर्षको दबयि, वह् स्वामिनीकी तरफ
देखती-भर रही । इस आशासे कि वे कुछ स्ट कहे।
श्र तसी--
स्वामिनीकें युगल-अधरोंमे स्पन्दन हुआ।
शुभ्न-दन्त-पंक्तिको सीमिंत-कारावासके बाहर कया
है {-- यह देखनेकी इजाज़त मिली, अरुण,
कोमल कपोलोपर लालिमाकी एक रेखा सची ।
पश्वात्-नव-परिणीता-पत्नीकी सोति सलज-
चाणी प्रस्फुटित हुई !--
'तू मेरी प्यारी सहेली है , तुमसे मेरा क्या
छिपा है । कुछ छिपाया भी तो नहीं जासकता |
मेदकी शुप्त-वात तुमसे न कहूँ तो, कहूँ फिर
किससे . ./--सखीको छोड़, ऐसा फिर कौन ? ..
मेरे दुख-सुखकी वात... «.. --रानी सा्िवा-
ने वातकरो अधूरा ही रहने दिया । बात कुछ वन ही
न पढ़ी इसलिये, या देखें सखीका क्या आइडिया
है-अभिमत दै, यद जाननेके लिए ।
सखीको महदारानीसे कुछ प्रेम था, सिफे वेतन
या दासित्व तक की ही मर्यादा न थीं । ` समस्या.
का कुछ आभास मिलते ही उसने अपने हृदय
उद्गारोंको बाहर निकाला--झाप ठीक कहरही हैं,
महारानी, कोई मी वात आपको मुभसे न छिपाना
चाहिये । और मैं शक्ति-साध्य कार्य भी यदि आपके
लिये सम्पन्न नकर सकी तो- मेरा जीवन धिक्कार।
छाप विश्वास कीजिए मसे कदी हुई वात
श्रापके लिये सुखप्रद हो सकती है । दुखकर कपि
नहीं । आपकी अमिलाषाकों मुक्त तक आना
चाहिये, बगैर संकोच, मिमकके ! इसके वाद्
उसे पूर्णताका रूप देना-मेरा काम | में उसे
प्राणो की वाजी लगाकर भी पूरा करनेकी चेष्ठा
करेगी !'
८ ` लेकिन सखी। बात इतनी घृणित है, इतनी
पाप-पूर्ण है, जो मुंहसे निकाले नहीं निकलती ।
मैं ज्ञानती हूँ-ऐसा प्रस्ताव मुमे मुँहपर भी न
लाना चादिए । मगर लाचारी ह, हृदय समाये
नहीं सममता । एक दसा नशा सवार है, जो--या
तो मिलन युः प्राण.विसज॑न-पर तुना बैठा हे ।
मै उसे दरकरा नदीं सकती । कलंक लग जायेगा,
इसका मुभे मय नदीं । लोग क्या कहेंगे, इसकी
मुमे चिन्ता नही । मै तो वस, अपने हदयके
ईश्वरको चाहतीहूँ । ' ` - मदारानीके विन्हल-
करठते प्रगट किया । शायद शरीर मी कृच प्रगट
होता, फि विचित्रमालाने वीच ही मे रोका-
परन्तु वह ईश्वर हे कौन ! '
“लंकेश्वर-महाराज-रावण ”--छधमुँदी-अखो-
में स्वगं-सुखका आाव्दान करती-सी, महारानी कहने
लगी--शायद् तू नहीं जानती मैं उस पुरुषो-
त्तमपर, छाजसे नहीं विवाहित होनेके पू्वसे ही;
प्रेम रखती हूँ, मोहित हूँ । तभीसे उसके शुणोंकी,
रूपकी, चौर बीरताकी, हदयमे पूजा करती घा
रही हूँ । लेकिन कोई उचित, उपयुक्त अवसर न
मिलनेसे चुप थी, परन्तु-अव भ्राज बह शुम
दिवस सामने है, जव यै उसतकं अपनी इच्छा
पहुँचा सक । उसके दशंनकर, चरणोमे स्थान
पाकर, अपनी अन्तराम्नि शन्त कर सक् ॥ वह
आज समीप ही पारे हे । हमारे देशपर विजयः
पताका फदराना उनका ध्येय है। * काश ! उन्हें
मालूम दोता कि देशकी महारानीकें हृद्यपर वह
कबसे शासंन कर रहे-हैं ' - -
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