रामराज्य की ओर | Ramarajya Ki Or

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Ramarajya Ki Or by स्वामी शुकदेवानन्द जी - Swami Shukadevanand Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के (१३) परजा सचिव सम्मत्त सवद का । जेषि पितु देहि सो पावहि टीका॥ यदि धाज को युग होता तो थोटों द्वारा पास होने पर ्रपते ध्रधि- फार को कदाचित्‌ भरत जी न होते, किन्तु वे तो रामराज्य के सच्चे संस्थापक थे । गुरु का द पति ही ननिहाल से लौटकर उन्होंने देखा प सदेव श्रागन्द्‌ भे रहने वाली प्रजा श्राज विपादमग्न क्यों है ! सर्वत्र उदासी सो क्यों दायी हुई है ? प्रजाननन मुझे देखते हो एक थार उदास-भाव से दल दते ह। युके श्रभिवादन भी .नहीं करते । उन्दी विचारो पं तीन भरत जी राजमहल में “पहुँचे धर उन्हें जब श्वपनी माता द्वारा वस्तु स्विति का पूर्ण रुपसे ज्ञान हा दो दे रतब्ध रह गये । पिता की सत्य का दुखद संवाद श्रीसीता तथा लम जी सिर श्री रास के वन-गमन के संचाद की श्रपैक्ता कम पीन हुशा । उन्होंने गम्भीरत्ता-पूर्वर विचार क्रिया कि इस समय मेरी तनिक सं भी श्रसावधानी प्रजा-चिद्रोह का कारण वन सकती है दसौ विचार से उन्होंने श्वपनी जननी ककेई के प्रति इषं अदु शद का भी प्रयोग किया जैसा कि ऊपर बताया जाघुका है | श्रपने नाता +श्री रामकृ श्रजुराग तो उनके हृद्य में पूर्णरूपेण था ही । उस भावना श्रथति प्रजाहित्त की भावना से ही उन्होंने कटु शष्ट का प्रयोग किया । यदि रस समय मौन रहते तो एहले से कानाफूसी करने चाल प्रनाजन स्पप्ट रूप से कह सकते थे कि भरत तथा कंकेई का यह पदयन्त्र पहले सेद्दी निश्चित था । माता को भला चुरा कहने के पश्चात्‌ उन्होंने पुत्र धियोगिनी साता कौंशिरया के प्रति श्रपने हृदय के उद्गारों क; प्रकट करर दए कहा-- मातु तात कहूँ देहि दिखाई | कहूँ सिय राम लखन दोऽ भाई ॥




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